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उपन्यास

भागोंवाली

रमेश पोखरियाल निशंक


भागोंवाली

(एक परिवार के अंतर्द्वंद्व और टूटते बिखरते रिश्तों की मार्मिक कहानी)

डॉ . रमेश पोखरियाल ' निशंक '

प्रभात प्रकाशन , दिल्ली

ISO 9001:2008 प्रकाशक

 

प्रकाशक प्रभात प्रकाशन

4/19 आसफ अली रोड,

नई दिल्ली-110002

संस्करण • प्रथम, 2015

सर्वाधिकार • सुरक्षित

मूल्य • दो सौ रुपए

मुद्रक • आर-टेक ऑफसेट प्रिंटर्स, दिल्ली

BHAGONWALI by Dr. Ramesh Pokhariyal Nishank' Rs. 200

Published by Prabhat Prakashan, 4/19 Asaf Ali Road, New Delhi-2

e-mail: prabhatbooks@gmail.com ISBN 978-93-5186-2253

 

एक

घर में अचानक कोहराम मच गया, जिसे देखो वही शास्त्री जी के घर की तरफ दौड़ा चला जा रहा था। माजरा किसी की भी समझ में नहीं आया। अभी तक भले-चंगे शास्त्री जी को यह अचानक क्या हो गया।

लोग एक-दूसरे से कह रहे थे, "क्या हो गया शास्त्री जी को? अभी दोपहर में तो उन्हें देखा था, कैसे मृत्यु हो गई उनकी?"

"भई अभी एक घंटे पहले ही तो मैंने उन्हें देखा था घर से बाहर निकलते हुए।"

"हाँ छड़ी उठाकर घूमने निकले थे। शायद एक्सीडेंट हो गया, किसी ट्रक की चपेट में आ गए।" लगातार लोग बातें कर रहे थे।

शास्त्रीजी के घर में भीड़ जमा हो गई। पूरे मुहल्ले के लोग इकट्ठा हो गए। खून से लथपथ शास्त्रीजी की लाश आँगन में पड़ी थी। बगल में शास्त्रीजी की पत्नी दहाड़े मारकर रो रही थी, तो दूसरी तरफ दोनों बहुएँ भी विलाप कर रही थीं।

किसी को मानो यकीन ही नहीं हो रहा था कि अभी कुछ मिनट पहले घर से भले-चंगे निकले शास्त्रीजी इस अवस्था में लौटेंगे।

लोगों की आँखों में आँसू थे। कुछ बुजुर्ग महिलाएँ उनकी पत्नी को ढाढ़स बँधाते हुए खुद भी सुबक-सुबककर रो रही थीं।

बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे शास्त्रीजी। पूरा मुहल्ला उनका बहुत सम्मान करता था! अभी मुश्किल से सात या आठ माह हुए होंगे उन्हें रिटायर हुए। प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर पद से रिटायर्ड हुए थे वह! ठीक दो माह पूर्व ही अपने इस घर में गृह-प्रवेश किया था उन्होंने।

पूरे जीवन भर सच्चाई और ईमानदारी से अपने और अपने परिवार का भरण-पोषण कर रिटायरमेंट से मिले पैसों से बड़ी लगन से यह घर बनाया था उन्होंने। किसी को भी मालूम नहीं था कि जीवन भर किराए के मकान में जीवन-यापन करनेवाले शास्त्रीजी अपने घर का सुख केवल एक-दो माह भी नहीं भोग पाएँगे? आखिर अब ही तो दिन आए थे उनके सुख देखने के।

खुद उनकी पत्नी को यकीन नहीं हो रहा था कि शास्त्रीजी इस तरह से उन्हें छोड़कर चले जाएँगे! आज उसे लग रहा था कि उसके भाग फूट गए हों जैसे।

सारी बस्ती के लोग उसे 'भागोंवाली अम्माँ' कहकर पुकारते थे, लेकिन यह कैसा भाग्य निकला उसका कि पति उसे जीवन के उस मोड़ पर छोड़कर चले गए, जब उन्हें नाती-नातिन और बेटे-बहुओं का सुख देखना था।

भागोंवाली अम्माँ'! हाँ, इसी नाम से जानी जाती थी वह। मुहल्ले के लोग ही क्या, बस्ती के लोग भी इसी नाम से पुकारते थे शास्त्रीजी की पत्नी को!

यह नाम लोगों की जुबान पर इतना चढ़ गया था कि अम्माँ का असली नाम क्या था, वह खुद भी भूल गई थी। यह नाम ऐसे ही नहीं मिला था उसे। छह बच्चों की माँ थी वह, जिनमें दो बेटियाँ बड़ी थीं और उनके पीछे थे चार बेटे! इन्हीं चार बेटों की वजह से उसे भागोंवाली नाम से जाना जाने लगा था, लेकिन आज अम्माँ को महसूस हो रहा था कि लोगों का दिया हुआ यह नाम ईश्वर को जैसे माफिक नहीं आया। अभी तो कुछ भी सुख नहीं देख पाए थे शास्त्रीजी अपने जीवन का, लेकिन ईश्वर ने उन्हें अपने पास बुला लिया।

सबकुछ ठीक-ठाक ही तो चल रहा था जीवन में, दो बेटियों की शादी हो गई थी और दोनों अपने परिवार में खुश थीं। बड़े बेटे सुरेश और दूसरे बेटे दिनेश की भी शादी हो गई थी! फूल जैसी एक नातिन भी घर में आ गई थी। शेष दोनों बेटे बड़ी कक्षाओं में पढ़ रहे थे। अपना घर बन गया था। घर में खुशियों का माहौल था, किंतु न जाने किसकी नजर लग गई थी इस घर की खुशियों को।

इस नए घर में आए हुए अभी केवल दो माह ही हुए थे कि यह वज्रपात हो गया। किसी वज्रपात से कम भी तो नहीं थी यह घटना। अभी उम्र ही कितनी थी उनकी? केवल साठ वर्ष ही तो हुए थे पूरे। जीवन भर मेहनत और संघर्ष के पश्चात् जब उन्हें अब सुकून का जीवन जीने का समय मिला, तो वे खुद इस दुनिया से चल बसे।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सुदूरवर्ती गाँव के रहनेवाले थे शास्त्रीजी। पूरा नाम था रमानंद शास्त्री। मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे शास्त्रीजी अपने चार भाई-बहिनों में दूसरे नंबर के थे।

पिता इलाके के रसूखदार व्यक्तियों में शुमार थे, इसलिए सभी भाई-बहिनों को अच्छी शिक्षा मिली थी।

गाँव से आठवीं कक्षा उत्तीर्ण कर आगे की शिक्षा के लिए पिताजी ने उन्हें वाराणसी भेज दिया था, जहाँ से उन्होंने संस्कृत में शास्त्री कक्षा तक की पढ़ाई पूरी की थी।

पढ़ाई पूरी करने के पश्चात् उन्हें एक दिन भी घर में नहीं रहना पड़ा, तुरंत ही उन्हें नौकरी भी मिल गई, लेकिन नौकरी मिली तो घर से बहुत दूर पहाड़ पर मिली थी।

दो सालों के पश्चात् पिताजी ने उनकी शादी कर दी। तब अम्माँ केवल पंद्रह वर्ष की रही होगी। घर से दूर रहने के कारण रामानंद तीन-चार महीने बाद पहाड़ से घर आते। वह भी तब, जब एक हफ्ते की छुट्टियाँ इकट्ठी होती।

पहाड़ के जनजीवन और कठिनाई के बारे में उनके माता-पिताजी ने सुना था। सो उनकी कठिनाइयों को देखते हुए उनकी पत्नी को साथ भेज दिया। अब तक वे दो बेटियों के पिता भी बन गए थे।

पत्नी साथ आ गई तो शास्त्रीजी की दिनचर्या में थोड़ा सुधार आ गया। सुधार भी क्या आ गया। अब खाना बनाने-खाने का साथ हो गया था, तो दूसरी तरफ मन बहलाने के लिए दो बेटियाँ भी पास में आ गई थीं।

बस, तब से शास्त्रीजी पहाड़ के एक जिले से दूसरे जिले, दूसरे जिले से तीसरे जिले में हर तीन-चार वर्षों में नौकरी करते रहे। पहाड़ की आबोहवा और जीवन उन्हें इतना रास आया कि उन्होंने कभी भी अपने विभाग में पहाड़ से मैदान में ट्रांसफर चाहने की अरजी तक नहीं लगाई।

पहाड़ के इस छोटे से कस्बे में वे पिछले दस वर्षों से रहते आ रहे थे। अब उन्हें यहाँ अपना घर सा ही लगने लगा था। उन्हें ही क्या, वहाँ के लोग भी अब शास्त्रीजी से और अम्माँ से इतना घल-मिल गए थे कि उन्हें वहाँ से कभी ट्रांसफर ही नहीं होने दिया। दो बार उनका तबादला दसरे जिले में भी हुआ, लेकिन लोग हर बार शिक्षा अधिकारी के दफ्तर में धमक जाते। खासे लोकप्रिय हो गए थे शास्त्रीजी लोगों के बीच।

यही वजह है कि जिसने भी शास्त्रीजी की मृत्यु का समाचार सुना, वह दौड़ा चला आया था।

अब घर में ही नहीं, वरन् पूरे मुहल्ले में कोहराम मच गया था। शास्त्रीजी की मृत देह पर दहाड़ें मारती अम्माँ को मुहल्ले की बड़ी बुजुर्ग स्त्रियों ने किसी तरह से अलग किया।

खबर सुनकर दोनों छोटे बेटे भी घर पहुँच गए थे। पिता की देह देखकर वे भी सकते में आ गए। दोनों बड़े बेटे दिल्ली में थे और उन्हें भी खबर भिजवा दी गई थी। दूसरी ओर शास्त्रीजी के पैतृक गाँव में भी खबर कर दी गई थी।

शास्त्रीजी के पैतृक गाँव के बारे में लोग बहुत ज्यादा नहीं जानते थे। सिर्फ इतना ही पता था कि वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी दूरस्थ गाँव के हैं। शास्त्रीजी ने भी कभी किसी को अपने घर और गाँव के बारे में कुछ नहीं बताया। वे कभी अपनी व्यक्तिगत जिंदगी के बारे में किसी से भी चर्चा नहीं करते थे। हाँ, अगर कभी किसी ने पूछ ही लिया तो वे सिर्फ इतना ही बताते कि वे उत्तर प्रदेश के हैं। इससे ज्यादा अगर कोई जानना भी चाहता, तो शास्त्रीजी बड़ी सफाई से टाल देते।

शास्त्रीजी की तरह अम्माँ ने भी किसी से कभी भी कुछ नहीं बताया। न लोगों ने ही उनके नाते-रिश्तेदारों को कभी यहाँ देखा था। घर से स्कूल और स्कूल से घर आने-जाने के अलावा शास्त्रीजी कभी भी इस कस्बे से किसी अन्य कस्बे में नहीं आते-जाते थे, न उनकी यहाँ कोई नाते-रिश्तेदारी थी और न कोई अन्य संबंधी ही रहता था। बस छठी-छमाही या फिर गरमियों की छुट्टियों में कभी-कभार शास्त्रीजी ही सपरिवार गाँव जाते रहते थे।

 

दो

सुबह होते-होते दिल्ली वाला बेटा, दोनों बेटियाँ और उनके दामाद भी रोते-बिलखते घर पहुँच गए थे।

सिर्फ मुहल्ले ही नहीं, बल्कि इलाके भर में लोग उनको अंतिम विदाई देने पहुंचे थे। प्रात:काल से ही उनके आँगन में भारी भीड़ जमा होनी शुरू हो गई थी। अरथी उठते-उठते सैकड़ों की संख्या में लोग एकत्रित हो गए थे। उनकी मृत्यु का समाचार रातोरात जंगल की आग की तरह सब जगह फैल गया था। जिसने भी सुना, वह दौड़ा हुआ सुबह उनके घर तक पहुँच गया। अरथी उठी तो अम्माँ पछाड़े मार-मारकर रोने लगी! मुहल्ले की औरतों ने किसी तरह बड़ी मुश्किल से उसे काबू में किया।

नम आँखों से सभी ने शास्त्रीजी को अंतिम विदाई दी। अम्माँ का तो रो-रोकर बुरा हाल हो गया था, हर कोई उसी को समझा रहा था। दूसरे दिन शास्त्रीजी की पार्थिव देह को उनके बड़े बेटे ने मुखाग्नि दी और उनका शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो गया।

"अगर रो-धोकर मरने वाला वापस आता, तो फिर हम भी तेरे साथ रो लेते, जो कुछ ईश्वर की मरजी थी वह तो अब हो गया। अब तू अपनी देह खोएगी क्या?" कोई बड़ी बूढ़ी महिला अम्माँ का समझाती!

कोई कहती, "शास्त्रीजी जैसे भले पुरुष का इस कलियुग में स्थान कहाँ है। अच्छे लोग तो भगवान् को भी प्यारे होते हैं।"

दिन भर घर में भीड़-भाड़ रही, साँझ ढलते-ढलते एक-एक कर लोग अपने घरों को चलते बने। अब बचा अम्माँ का पूरा परिवार। कई वर्षों बाद पूरे परिवार को एक साथ देख फिर अम्माँ का कलेजा भर आया, वह विलाप करती, "हे नीमा के पापा, देखो आज सब परिवार इकट्ठा हो रखा है तुम्हारे लिए; कहाँ गए तुम सबको छोड़कर।"

दो बेटियाँ, दो दामाद, चार बेटे, दो बहुएँ और एक नातिन, इतने सदस्य एक साथ होने के बावजूद भी घर में सन्नाटा छाया हुआ था। सन्नाटा भी ऐसा कि बीच-बीच में अम्माँ की चीत्कार ऐसी लगती, मानो अँधेरे का सीना चीर रही हो। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था, मानो सब के सब काठ के हो गए हों। कोई कुछ बोले भी, तो बोले क्या? दु:ख, बीमारी कुछ होती तो उसके बारे में चर्चा करते, परंतु यह तो अकस्मात् घटी ऐसी अप्रत्याशित घटना थी, जिस पर कुछ भी बोलना किसी को सूझ नहीं रहा था।

उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला। परंपरा के अनुसार उस दिन चूल्हा जलता भी नहीं। बेटियाँ दूसरे घर की हो गई थीं, साथ में दामाद भी थे, इसलिए अड़ोसी-पड़ोसी एक-दो बार घर में आए और दामाद एवं बेटियों को खाने को पूछा, अपने घर में बुलाया भी, लेकिन खाना कौन खाता आज! सबका मन तो भरा हुआ था। यों भी घर में जब कोई दुःख-बीमारी हो, तो भी खाने से मन उचट जाता है, फिर यह तो बड़ी घटना घट चुकी थी। भला ऐसे में किसके मुँह में निवाला जाता, छुटकी तक ने भी आज कुछ नहीं खाया था।

सभी लोग एक ही कमरे में बैठे किसी तरह जैसे रात खुल जाने की प्रतीक्षा करते रहे। समय ऐसा लग रहा था मानो अत्यंत मंथर गति से चल रहा हो, घडी की टिक-टिक भी बहुत ही मद्धम गति से सुनाई देती प्रतीत हो रही थी।

शास्त्रीजी की तसवीर के सामने दीपक जला हुआ था। सेवानिवृत्त होने के दिन ही उन्होंने फोटो स्टूडियो में जाकर यह तसवीर खिंचवाई थी। बड़े से सुनहरे फ्रेम में जड़कर उसे बैठक वाले कक्ष में लगा दिया था। उस पर नजर जाती, तो ऐसा लगता कि अभी तसवीर से बाहर निकलकर शास्त्रीजी बोल पड़ेंगे! किसी का भी मन गवाही नहीं दे रहा था कि अब ये हमारे साथ नहीं रहे। हआ भी तो सब अचानक ही।

जब मौत का फरमान होता है, तो इनसान उसके बताए अनुसार चलता है। घूमने के लिए जाना कोई नई बात नहीं थी। शास्त्रीजी की दिनचर्या में शामिल था यह। सायं को छह बजे के लगभग वे छडी उठाकर निकल जाते थे, लगभग एक किलोमीटर दूर तक घूमने के बाद वे हाथों में सब्जी की थैली लिये वापस आते थे, साथ में लाते थे छुटकी यानी नातिन के लिए कुछ-न-कुछ। कभी बिसकुट तो कभी टॉफी और चॉकलेट।

छुटकी रोज जाते हुए पूछती, "दादाजी! कितनी देर में आओगे?" "बस, ये गया और वो आया।" शास्त्रीजी उसे बहलाते। "अच्छा, मेरे लिए क्या लाओगे?" पूछती छुटकी। "तुम्हारे लिए लाऊँगा चिज्जी।" शास्त्रीजी कहते और प्यार से उसके गाल पर चिकोटी काटकर निकल जाते।

कल की ही तो बात है। शास्त्रीजी पाँच बजे ही छड़ी उठाकर बाहर निकल रहे थे कि अम्माँ पूछ बैठी।

"ए जी! आज कुछ जल्दी ही निकल गए, कहीं और जाना ह क्या?"

"नहीं भागवान, कहीं और तो नहीं जाना, बस, घर में भी मन कुछ उकता रहा है।" शास्त्रीजी बोले थे। "दादाजी, जल्दी आना।" छुटकी बोल उठी थी। "हाँ, हाँ, जल्दी आऊँगा और आपके लिए चिज्जी भी लेकर आऊँगा।" छुटकी के कुछ आगे कहने से पहले ही बोले थे शास्त्रीजी।

उस समय उन्हें क्या मालूम था कि वे जल्दी तो क्या, कभी भी नहीं लौट पाएँगे और लौटेंगे तो सिर्फ लाश के रूप में।

घर से कुछ ही दूर गए होंगे शास्त्रीजी कि एक तेज रफ्तार से आ रहे ट्रक ने उन्हें साइड से टक्कर मार दी। ट्रक की टक्कर से उछलकर दूर नाली में जा गिरे थे वह। सड़क पर आने-जानेवाले लोगों ने तुरंत उनको उठा लिया था। सिर पर काफी चोट आई थी, खून का फव्वारा फूट पड़ा था। लोगों ने नजदीक ही टैक्सी स्टैंड से टैक्सी मँगाई, लेकिन तब तक शास्त्रीजी की साँस उखड़ गई थी। अब अस्पताल ले जाने से कोई फायदा नहीं था, लिहाजा लोग उन्हें घर पर ही ले आए।

एक साथ भीड़ को घर के आँगन में आती देखकर अम्माँ का दिल धड़क उठा। ये इतने सारे लोग क्यों? क्या हुआ होगा, कहीं शास्त्रीजी को? नहीं-नहीं, वे तो अभी-अभी घर से बाहर गए हैं। दौड़कर वह अंदर से बाहर आई, तो शास्त्रीजी की रक्त रंजित देह देखकर बेहोश हो गई।

लोगों ने पानी के छींटे मारकर उन्हें सचेत करने का प्रयत्न किया। होश आया तो पता चला कि शास्त्रीजी अब इस दुनिया को छोड़कर चले गए हैं।

सुबह से सबकुछ सामान्य था। आदत के अनुसार शास्त्रीजी सुबह भी टहलने गए थे। आकर फिर नहाए-धोए, पूजा-अर्चना की और नाश्ता किया। दिन में कुछ पत्रिकाएँ उलटी-पलटी और पूरा अखबार पढ़ा, छुटकी के साथ बातें कीं, उसे खिलाया। लेकिन सायं को मौत ने जैसे उन्हें आवाज देकर बुलाया हो। वे समय से पहले ही छड़ी लेकर निकल गए थे। हाँ, शायद मौत ने ही बुलाया होगा, वरना पाँच बजे वे कभी भी घूमने नहीं निकलते थे।

घर से निकले क्या थे कि 20 मिनट के बाद ही उनकी निर्जीव देह घर में आ गई। अजीब खेल-खेला था उनके साथ ईश्वर ने भी।

कितना खुश थे शास्त्रीजी पिछले दो महीनों से। जीवन भर कड़ी मेहनत और संघर्षों की कमाई से अपना छोटा सा घर बनाकर, जो खुशी उन्हें हासिल हुई थी, उसकी तो कल्पना शायद कोई भी नहीं कर सकता था। जिंदगी भर इस स्कूल से उस स्कूल, इस शहर से उस शहर, इस कस्बे से उस कस्बे और इस गाँव से उस गाँव में उन्होंने अपनी नौकरी की। किराए के मकानों में रहकर अभावग्रस्त जीवन बिताया। अब अपना घर बनाकर उन्हें ऐसा लग रहा था, मानो संसार की सारी दौलत उनकी मुट्ठी में आ गई हो।


तीन

अपने वैवाहिक जीवन के चालीस दशकों में कभी उनके चेहरे पर शिकन नहीं देखी थी अम्माँ ने। वे हमेशा गंभीर बने रहे। वे हमेशा अध्ययनरत रहते थे! परिवार में भी बहुत कम और आवश्यकता पड़ने पर ही बोलते थे शास्त्रीजी! अम्माँ का वह बहुत सम्मान करते और ध्यान रखते! बच्चों के साथ खाना खाते समय खूब बतियाते और हँसी-मजाक भी करते। वे अपने नियम-धरम के बहुत पक्के थे। सुबह पूजा-अर्चना और भगवान् को भोग लगाने के बाद ही कुछ खाते-पीते। बच्चों की हर गतिविधि पर वे बारीकी से नजर रखते और हर प्रकार से खुद के आचरण से उन्हें सीख देकर संस्कारित करने का यत्न करते रहते थे! खिलखिलाकर हँसते हुए तो उन्हें कभी किसी ने देखा ही नहीं था। अपने कर्तव्य के प्रति सतर्क थे वे! सुबह समय से पूर्व स्कूल पहुँचना और छुट्टी होने के पश्चात् ही घर लौटना उनकी दिनचर्या का अंग बन गया था।

सुबह स्कूल जाते और तन्मयता से बच्चों को पढ़ाते। सायं को घर लौटने के पश्चात् फिर ट्यूशन पढ़ाने के लिए दो घरों में जाते। आखिर आठ लोगों का परिवार भी तो पालना था। एक मास्टर की तनख्वाह होती ही कितनी है? पैसे को अपने जीवन में कभी ज्यादा महत्त्व नहीं दिया शास्त्रीजी ने। ईमानदारी की तनख्वाह के पश्चात्, वे जिन दो घरों में ट्यूशन पढ़ाने जाते थे, वे लोग उस कस्बे के बरे और सम्मानित लोगों में माने जाते थे। अपनी स्वेच्छा से शास्त्रीजी ने कभी ट्यूशन फीस तय नहीं की, जो मिला उसे रख लिया, किंतु एक शर्त अवश्य रखी कि उन बड़े लोगों के बच्चों के साथ वे अन्य कमजोर बच्चों को भी पढ़ाएँगे। इस कारण पूरी कक्षा ही बन जाती थी दोनों घरों में, गरीब और कमजोर बच्चों से उन्होंने कभी भी कोई फीस नहीं ली।

शास्त्रीजी अपने कार्य में व्यस्त रहते और अम्माँ अपनी घर-गृहस्थी में।

छोटी सी नौकरी में घर-गृहस्थी चलाना कितना कठिन होता है, कोई अम्माँ से पूछे, लेकिन अम्माँ ने कभी उफ नहीं की। बड़ी ही सादगी और तरकीब से वह घर के सारे खर्चे पूरे करती। छह-के-छह बच्चे पढ़नेवाले थे! कोई स्कूल, तो कोई कॉलेज तक पहुँच गया था! किराए के दो कमरों में बमुश्किल समा पाते थे सब लोग। अपनी थकान और मेहनत का कभी अम्माँ ने शास्त्रीजी से जिक्र तक नहीं किया, लेकिन शास्त्रीजी समझते सबकुछ थे, इसलिए कभी-कभार समय मिलने पर वे अम्माँ के कार्यों में हाथ भी बँटा लेते थे। अम्माँ लाख मना करती, फिर भी वे कुछ-न-कुछ अम्माँ का कार्य हलका कर देते।

अम्माँ को याद आती अपने ससुराल की। कितना स्वच्छंद था वहाँ, बड़ा हवेलीनुमा मकान, दर-दूर तक फैले खेत, हरियाली, बड़ी गाशाला, ढेर सारे मवेशी और खब दध-घी। सब्जी की कोई कमी नहीं अपने ही खेतों में इतनी उगती थी कि बाजार से लाने का नौबत कभी नहीं आई। साझा चूल्हा होने के बावजूद भी सब लोग अपना-अपना कार्य मेहनत और ईमानदारी से करते। कोई भी अपना कार्य किसी दूसरे पर नहीं टालता। खुशनुमा जीवन था वहा का।

शादी के पूरे तीन वर्ष तक ससुराल में संयुक्त परिवार में रही थी अम्माँ, फिर जब शास्त्रीजी के साथ पहाड़ आ गई तो शरू-शरू में तो उसका यहाँ दिल ही नहीं लगा। ऊँची-ऊँची पहाडियाँ और गहरी घाटियाँ देखकर उसका दिल यहाँ बहुत डरता। यहाँ के लोगों की बोली-भाषा भी कुछ समझ में नहीं आती, लेकिन धीरे-धीरे वह भी यहीं रम गई। पहाड़ के लोगों का स्नेह, अपनत्व उसे इस कदर भाया कि अब यहाँ अम्माँ को अपना घर ही लगने लगा।

चार देवर-देवरानी थे उसके। दो भाई रामानंदजी की तरह नौकरी पर बाहर थे तो, दो घर में कृषि कार्य ही करते थे। खेती काफी बड़ी थी, इसलिए घर का गुजारा आराम से चलता।

शुरू में तो उसने कई बार रामानंदजी से कहा भी, "सुनो जी, यहाँ से बढ़िया तो अपना गाँव ही है। घर का पाँचवाँ हिस्सा भी मिलेगा तो इस मकान से बड़ा होगा।'

"हाँ, कहती तो ठीक हो, किंतु नौकरी तो यहीं करनी है न।" रामानंद ने समझाया।

"तबादला क्यों नहीं करवा लेते अपना, वहाँ रहकर गाय-भैंस पालँगी! कुल मिलाकर यहाँ से अच्छी जिंदगी तो होगी। यहाँ घर से इतनी दूर पहाड़ों में तो कोई भी अपना नहीं।" उसने अपनी बात रामानंदजी के सामने रखी।

रामानंद हँस पड़े थे। फिर मस्ती भरे स्वर में उन्होंने कहा था "अरे पगली, जहाँ प्यार मिलता है, वहीं अपनापन होता है। यहाँ कौन से हम विदेश में हैं। सभी लोग अपने ही तो हैं यहाँ पर? कितना आदर और सम्मान देते हैं। वहाँ तुम रह पाओगी मेरी भौजाइयों के साथ?"

"उस घर में हमारा भी तो हिस्सा है, हम अपना हिस्सा अलग माँग लेंगे।" मासूमियत से बोली थी अम्माँ!

"हिस्सा कैसे अलग माँग लेंगे? अभी हमारा संयुक्त परिवार है, जब हमारे बेटों की शादी इत्यादि होगी, तब घर का बँटवारा होगा। जब तक माता-पिताजी हैं, तब तक घर का हिस्सा नहीं हो सकता।" शास्त्रीजी ने समझाया तो चुप हो गई वह। यही परंपरा थी उनके इलाके में। माता-पिता के आगे तो बच्चे सिर भी नहीं उठा पाते थे। जब भाइयों की शादी हो जाए और बच्चे हो जाएँ, तब ही घर के बँटवारे की बात चलती थी।

कुछ देर बाद शास्त्रीजी खुद बोले, "तुम्हें यहाँ क्या तंगी है। चार-चार बेटों का धन है तेरे पास, उन्हें नौकरी पर लगने दे, फिर तो तेरे ठाठ-ही-ठाठ होंगे, सुख से रहेगी जिंदगी भर।"

यह कहते-कहते शास्त्रीजी की आँखों में चमक उभर आई थी। उस चमक को भली-भाँति देखा था अम्माँ ने। निश्चित सुनहरे भविष्य की चमक। आज उनके जीवन में संघर्ष है, तो कल जरूर इसका फल भी मिलेगा। यही तो गीता में भी भगवान् कृष्ण ने कहा है कि कर्म करते रहो, फल की इच्छा मत करो, किंतु न चाहते हुए भी इनसान कल के सपने तो सँजोता ही है।

शास्त्रीजी ने जो बात कही, वही तो सब लोग उसे भी कहते हैं। कुल मिलाकर लोगों की बातों की सत्यता प्रमाणित कर दी शास्त्रीजी ने! चमक अम्माँ की आँखों में भी उभर आई थी। ठीक ही तो कहते हैं शास्त्रीजी, यही तो सारे मुहल्ले के लोग भी कहते हैं।

पड़ोसियों की बातें भी याद आने लगी उसे, "चार-चार बेटे हैं तेरे, चार बहुएँ घर में! तुझे तो चूल्हे-चौके पर हाथ भी नहीं लगाने देंगी, नाती-नातिनों को ही खिलाएगी तू, राज करेगी राज।"

इसीलिए तो भागोंवाली नाम पड़ गया था अम्माँ का! अब तो उसे सब भागोंवाली ही कहा करते थे।

सुखद भविष्य के सपनों में गोते लगाती अम्माँ घोर अभावों में भी प्रसन्नचित्त रहकर जीने लगी थी।

शास्त्रीजी बेटों की पढ़ाई के प्रति बड़े सजग रहते थे, उनकी शिक्षा के लिए हर बलिदान देने को तत्पर रहते थे, लेकिन दूसरी ओर बेटियों की शिक्षा के प्रति वे, जाने क्यों, बड़े दकियानूसी थे।

वह समय भी कुछ ऐसा ही था कि बेटियों को सामान्यतः लोग पढ़ाते नहीं थे। पंद्रह साल के अंदर-अंदर हाथ पीले कर घर से विदा कर देते थे।

शास्त्रीजी तो खुद शिक्षक थे, बावजूद इसके अपनी दोनों बेटियों को उन्होंने दस साल तक घर में ही पढ़ाई करवाई, फिर जाकर कहीं स्कूल में भरती करवाया और पाँचवीं के बाद फिर स्कूल जाना बंद करवा दिया।

इतने में बड़ी बेटी विवाह योग्य हो गई थी, सो उसके लिए लड़के की तलाश शुरू हो गई, छोटी वाली जरा जिद्दी थी। पढ़ने में भी तेज थी, सो जिद कर के उसने मिडिल स्कूल में एडमिशन ले लिया और दसवीं पास कर ली थी।

"बेटियों को तो बस चिट्ठी-पत्री पढ़नी-लिखनी आ जाए, यही काफी है उनके लिए," कहते शास्त्रीजी, "कौन से उन्हें कहीं नौकरी करने जाना है।"

बड़ी बेटी की शादी उन्होंने अपनी ही जाति-बिरादरी में मेरठ में करवा दी थी। लड़का प्राइवेट फैक्टरी में नौकरी करता था। खाता-पीता परिवार था। वह अपने परिवार में सुखमय जीवन जी रही थी।

छोटी ने आगे पढ़ने की जिद की, तो एक दिन समय देखकर अम्माँ ने उसकी बात शास्त्रीजी के कानों में डाली, "ये तो आगे पढ़ने के लिए जिद कर रही है।"

"विवाह की उम्र हो गई है उसकी! ससुराल वाले पढ़ाना चाहेंगे, तो पढ़ लेगी। फिर उसके पीछे भी तो चार-चार भाई पढ़नेवाले हैं। कहाँ से आएगा इतना खर्चा?" शास्त्रीजी ने लक्ष्मण रेखा खींच दी थी, जिसे पार करने की हिम्मत किसी में नहीं थी।

शास्त्रीजी जब किसी बात पर अपना निर्णय दे देते थे, तो उस पर किंतु-परंतु की कोई गुंजाइश नहीं होती थी, न ही उनके निर्णय के खिलाफ किसी में कुछ कहने की हिम्मत थी। इसलिए आगे कुछ कहने में फायदा नहीं था।

अम्माँ भी चुप रही, आगे कुछ भी न बोली।

शास्त्रीजी ने बच्चों को कभी मारा नहीं। मारना तो बहुत दूर की बात है, कभी डाँटा तक नहीं उन्होंने, इसके बावजूद भी उनके गंभीर व्यक्तित्व का इतना गहरा असर था उनके बच्चों पर कि कोई उनके निर्णय के आगे 'चूँ' तक नहीं करता था।

बच्चे तो बच्चे रहे, खुद अम्माँ ने भी कभी उनकी बात नहीं काटी। वे हर चीज को सोच-समझकर और परखकर ही अपना निर्णय देते थे। सो जो निर्णय हो गया, सो हो गया। अब न तो शास्त्रीजी उस पर पुनर्विचार करनेवाले थे, और न अम्माँ उनसे दुबारा अनुरोध करनेवाली थी। इसलिए बेटी ने भी पिता की बात को स्वीकार कर लिया और आगे पढ़ने का विचार मन से पूरी तरह हटा दिया।

वह भी माँ और पिताजी की स्थिति अच्छी तरह से जानती थी। चार-चार भाइयों की पढ़ाई का खर्चा कैसे पिताजी उठाते होंगे, इस बात को वह अच्छी तरह से जानती थी। अम्माँ दिनभर कितनी मेहनत करती है, यह भी उससे छुपा हुआ नहीं था। अतः अब उसने घर क कामों में अम्माँ का हाथ बँटाना शुरू कर दिया।

 

चार

समय का चक्र तेजी से आगे बढ़ता रहा, जो कुछ चल रहा था, वह उसी प्रकार चलता रहा। शास्त्रीजी के परिवार की गाड़ी कल के सुनहरे स्वप्नों की आशा के साथ आगे बढ़ती रही। अपनी उम्र के साठ वर्ष पूरे करते-करते शास्त्रीजी की सरकारी नौकरी भी पूरी हो गई और नियमानुसार उन्हें रिटायरमेंट मिल गया।

रिटायर होने से पूर्व शास्त्रीजी दोनों बेटियों की शादियाँ कर चुके थे। दोनों ही अपने परिवार में खुश थीं। बड़े दोनों बेटों की भी नौकरी लगने के छह-छह महीने बाद शादी करवा दी थी। छोटे बेटे का विवाह तो अभी नौ माह पूर्व ही कराया था। दो बेटियाँ घर से विदा हो गईं, तो दो बेटी बहू के रूप में घर में आ गईं।

इसी बीच अम्माँ के जीवन में कुछ न बदला! सबकुछ ऐसे ही चल रहा था, पूर्व की तरह। हाँ, इस दौरान शास्त्रीजी ने अपना कुछ फंड लेकर जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा जरूर ले लिया था। अब अम्माँ भी यहीं रच-बस गई थी, उसे भी अब यही अपना घर-बार लगने लगा था। यहाँ के रीति-रिवाज, पहनावा, मेले, कौथीग सब-के-सब जैसे अम्माँ में समा गए थे। यहाँ तक कि अब अम्माँ यहाँ की बोली भी सीख गई थी और पड़ोस मुहल्ले की औरतों के साथ उसी बोली में संवाद करने लगी थी।

शास्त्रीजी और उनके विभाग के अन्य कई लोगों ने मिलकर काफी बड़ी जमीन एक साथ खरीदी और आपस में ही उसके टकडे काटकर, प्लॉटिंग करके आपस में बाँट ली थी। इसे नाम दिया गया था 'टीचर कॉलोनी'। एक वर्ष के अंदर-अंदर लोगों ने उसमें अपने-अपने मकान भी बनाने शुरू कर दिए थे।

शास्त्रीजी रिटायरमेंट के छह माह पूर्व से एक-एक दिन गिनकर काटने लगे थे। उनका रिटायरमेंट हो जाए, तो फिर वे भी अपना मकान बना लेंगे, तरह-तरह से योजनाएँ बनाते रहते थे वे। खाली समय में वे अपने प्लॉट में भी जाते, जहाँ उन्होंने सब्जी इत्यादि भी उगा रखी थी। कभी-कभार वहाँ से भिंडी, बैंगन, खीरा आदि भी ले आते। उस सब्जी में एक अलग किस्म का स्वाद सभी को मिलता, तो एक आत्मिक खुशी भी सभी को प्राप्त होती। शादी के एक वर्ष बाद शास्त्रीजी की बड़ी बहू ने एक पुत्री को जन्म दिया, तो घर में खुशी का माहौल बन गया। नाना-नानी तो वे पहले ही बन गए थे, अब दादा-दादी बनने के पश्चात् तो जैसे शास्त्रीजी और अम्माँ की खुशी का ठिकाना नहीं था। वहीं दूसरी ओर उनके तीनों बेटे भी चाचा बनने पर अति उत्साहित थे। उनको तो मानो कोई खिलौना मिल गया हो।

अम्माँ का काम और बढ़ गया था। घर के कामों के अतिरिक्त अब पोती की देखरेख का जिम्मा और बढ़ गया था। सारे काम निबटाने के बाद भी फूल सी पोती का चेहरा देखकर वह दिनभर की सारी थकान भूल जाती थी।

वह दिन भी आ गया, जब शास्त्रीजी को रिटायर होना था। उनके साथी अध्यापकों और विभाग ने मिलकर उनकी विदाई म पार्टी का आयोजन किया था।

सायं को शास्त्रीजी ढेर सारे उपहार और मालाएँ लेकर घर पहुँचे, तो घर में सबने उनका स्वागत किया।

"पिताजी, अब आप आराम करेंगे! अब काम की फिक्र छोड़ दें आप।" दूसरे बेटे दिनेश ने कहा था।

"अच्छा, मुझे अभी से बूढ़ा समझ लिया है क्या? अरे अभी तो मैं तुम सब लोगों के लिए घर बनाऊँगा।" शास्त्रीजी नकली अकड़ के साथ बोले।

"आप घर की चिंता भी छोड़ दें, वह हम सब मिलकर बना लेंगे।"--तीसरे बेटे कुलदीप ने कहा था।

"अभी तो तुम सब लोग पढ़ाई पूरी करो। पहले नौकरी पर लगो, फिर आगे की बातें करना।" शास्त्रीजी ने मानो प्यार से डपटते हुए कहा।

घर में खुशी का माहौल था, अपना घर बनाने की कल्पना में सब-के-सब उत्साहित थे, किंतु अम्माँ के मन में जाने क्यों कुछ संदेह था।

अनेक विचार उसके मन में आ-जा रहे थे। दो बेटियों की शादी हो गई, एक बेटा नौकरी पर भी लग गया, दूसरा भी इसी वर्ष डिग्री पास करके नौकरी पर लग जाएगा। दोनों छोटे भाई भी इसी साल डिग्री कॉलेज में चले जाएँगे। अभी तक तो नौकरी के चलते अपनी जड़ों से इतनी दूरी रहते आए हैं। अब उम्र के इस पड़ाव में यहाँ घर बसाना क्या ठीक रहेगा?

बच्चे भी नौकरी पर लगेंगे, तो न जाने उन्हें कहाँ नौकरी मिलेगी? फिर अपनी माटी तो अपनी ही होती है। मन की बात आखिर उसने रात्रि को शास्त्रीजी के समक्ष रख ही दी।

"ए जी, मैं कह रही थी कि सुरेश तो दिल्ली में नौकरी पर है। अब दिनेश की नौकरी भी लग जाएगी, रही कुलदीप और जयदीप की तो वे अब छोटे तो नहीं रहे..." इतना कहकर वह थोड़ी देर के लिए रुक गई...।

"हाँ, कहती तो तुम ठीक ही हो।" शास्त्रीजी ने उसकी बात का समर्थन किया, तो अम्माँ को जैसे थोड़ा और बल मिल गया। उसने बात को आगे बढ़ाया।

"मैं कह रही थी कि उम्र के इस पड़ाव में हमें यहाँ बसना ठीक रहेगा?"

"क्या मतलब?" यकायक चौंक गए शास्त्रीजी।

"मतलब कि वहाँ तो अपनी खेती है, मकान है। अपना हिस्सा है हमारा.." धीरे से कहा अम्माँ ने।

"बावली हो गई हो क्या? अब क्या कहकर वहाँ हिस्सा माँगने जाएँगे। किया क्या है हमने वहाँ के लिए? उनके सुख-दुःख में कहाँ कभी काम आए?" शास्त्रीजी ने पूछा।

"लेकिन हैं तो वे फिर भी अपने..." अम्माँ ने तर्क दिया।

"अब हमारे अपने तो ये ही लोग हैं, जिनके बीच हम पिछले तीस-चालीस वर्षों से रह रहे हैं।" शास्त्रीजी ने समझाते हुए कहा, "अब यहीं हमारा घर है, यहीं रच-बस गए हैं हम। अब तो वहाँ जाकर ही हम अजनबी हो जाएँगे, फिर बच्चे तो यहीं हैं, वहाँ अकेले रहकर क्या करेंगे हम।"

चुप रही अम्माँ, शास्त्रीजी ने उसकी आँखों में देखा, तो संतुष्टि के भाव थे। सोचने लगी अम्माँ, 'ठीक ही तो कह रहे हैं शास्त्रीजी। अब यहीं तो हमारा घर है। यहाँ के लोग कितने सुंदर हैं, कभी अहसास नहीं होने दिया कि हम बाहर के हैं। हमेशा अपनत्व दिया, सुख में दु:ख में साथ निभाया। शास्त्रीजी का कथन सही है कि अब वहाँ जाकर ही हम अजनबी हो जाएँगे। दूसरी बात यह कि बच्चों का जन्म यहीं हुआ, वे यहीं के रीति-रिवाज समझते हैं, यहीं की बोली-भाषा बोलते हैं, फिर वहाँ जाकर तो उन्हें खुद परायापन लगेगा।'

संतुष्ट हो गई थी अम्माँ, सच तो यही है कि उसे भी अब यहीं की माटी, यहीं के लोग, यहीं का मौसम और यहीं की वादियाँ अपनी लगने लगी थीं।

पहाड़ के लोगों का दिल पहाड़ की तरह ही विशाल होता है। जो मान और सम्मान इतने वर्षों से अम्माँ और शास्त्रीजी को यहाँ मिल रहा है, वह और कहाँ मिलने वाला था।

शास्त्रीजी ने भी अपना एक-एक क्षण देकर यहाँ एक नई सुसंस्कारित पीढ़ी तैयार की है। उनके पढ़ाए बच्चे आज फौज में, सरकारी दफ्तरों में और बड़ी-बड़ी कंपनियों में अफसर हैं।

एक तो एस.डी.एम. भी है और दो-तीन विदेश में भी हैं। शास्त्रीजी की दी गई शिक्षा-दीक्षा का सिर्फ उनके विद्यार्थी ही नहीं, बल्कि उनके अभिभावक भी सम्मान करते हैं।

आज भी वे लोग जब गाँव आते हैं, तो शास्त्रीजी के ही नहीं, अम्माँ के भी पैर अवश्य छूते हैं। इतने सालों में अम्माँ अब यहाँ इतनी घुल-मिल गई थी कि सामान्य बोलचाल की भाषा में वह पहाडी भाषा भी बोलने लगी थी। पास-पड़ोस और मुहल्ले की औरतों के बीच अच्छा प्रभाव था उसका।

भजन-कीर्तन हो या अन्य कोई धार्मिक अथवा सामाजिक कार्य, अम्माँ सबमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थी और सब उसे आदर भी देते थे।

यहाँ के लोगों ने ही तो नाम दिया है उसे 'भागोंवाली अम्माँ' हर तरफ 'भागोंवाली अम्माँ' के नाम से वह प्रसिद्ध है यहाँ। अब दूसरी जगह जाकर उसे नए सिरे से अपनी पहचान बनानी पड़ेगी। उसे तो अब अपना नाम भी याद नहीं रहा। नहीं-नहीं, यहीं अब अपना घर है। अब कहीं नहीं जाना हमें। यहीं रहना है, यहीं मकान बनाना है। क्या नहीं है इस पहाड़ में, बिजली है, पानी है, ताजा आबोहवा है। सड़कें हर गाँव और कस्बे तक पहुंच गई हैं।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि यहाँ शांति है, न लड़ाई-झगड़े हैं और न ईर्ष्या, द्वेष हैं। चोरी-चमारी तो बहुत दूर की बात है। यहाँ के लोग तो इधर-उधर जाते हुए घरों में ताले तक नहीं डालते। ताले लगाना अशुभ माना जाता है पहाड़ में।

सोचते-सोचते न जाने कब अम्माँ को नींद आ गई।

पाँच

रिटायरमेंट के फंड से मिले पैसे से शास्त्रीजी ने सबसे पहले। मकान बनाने की ठानी। आज से ठीक पाँच साल पहले जब उन्होंने जमीन ली थी, तब वहाँ झाड़-झंकार और कुकाट प्रजाति के पेड़ों का जंगल सा था। बस्ती से काफी दूर था यह स्थान, निर्जन सा, आने-जाने का कोई भी साधन नहीं था। दूर होने के कारण और एकमुस्त खरीद के कारण यह काफी अच्छी दरों पर मिल गया था। सब लोगों ने मिलकर जब चार बीघा जमीन ली थी, तो नाप करने के लिए कई दिन तो झाड़-झंकार को साफ करने में ही लग गए थे। तब वहाँ पर सड़क का प्लान बनाकर प्लॉट काटे गए और सबको आवंटित कर दिया गया।

तब तो लगता था कि यहाँ पर न जाने कितने वर्षों के बाद बस्ती बन पाएगी, ऊपर से आबादी से दूर होने के कारण न तो बिजली की तारें थीं और न ही पानी की लाइन वहाँ तक गई थी।

मन तो शंकित था शास्त्रीजी का, पर फिर निर्णय ले ही लिया। कुल 16 लोग थे, जो हिस्सेदार थे। जो करे गाँव, वह करे गँवार। यह सोचकर शास्त्रीजी भी इसमें शामिल हो ही गए। एक अकेले वही खरीदते, तो कोई बात थी, किंतु इतने लोगों ने इस पर पैसा लगाया है, तो कुछ सोच-समझकर ही लगाया होगा। चलो, मकान बनेगा तो ठीक, नहीं तो बेच देंगे।

कहते हैं सोना और जमीन कभी भी घाटा नहीं देते। पहले से तो कुछ ऊपर ही मिलेगा, नहीं तो अपनी कीमत तो दे ही देगा यह टुकड़ा।

दो साल तक यहाँ कुछ भी काम नहीं हुआ, किंतु धीरे-धीरे लोगों ने काम करवाना शुरू किया।

रामलालजी ने रिटायर होने के बाद सबसे पहले अपना मकान बनाना शुरू किया, तो उनकी देखा-देखी में और लोगों ने भी शुरुआत की, किसी ने अपनी बाउंड्रीवॉल डाल दी, तो किसी ने नींव डाल दी।

उनके कुछ साथियों ने तो खुद मकान बनाने की बजाय प्लॉट को बेच दिया था। अपनी लगाई रकम के तीन और चार गुना दाम मिल गए थे उन्हें, लेकिन शास्त्रीजी का मन प्लॉट बेचने का नहीं था, वे तो उस पर घर बनाना चाहते थे। अब तो वहाँ पर तीन-चार लोगों ने मकान भी बनवा दिए थे। बिजली और पानी के कनेक्शन भी वे लोग ले आए, देर-सवेर सड़क भी आ ही जाएगी।

शास्त्रीजी ने भी अपने प्लॉट की चहारदीवारी बना दी थी। अब उन्होंने वहाँ पर कुछ बीज भी छिड़क दिए। मूली, राई और पालक खूब उग आए तो फिर उस साल उन्होंने खूब हरी सब्जी खाई।

फिर तो शास्त्रीजी ने मजदूर लगाकर खूब अच्छी तरह से खुदाई करवाई और तरकीब से क्यारियाँ बनाकर उनमें बैंगन, भिंडी और टमाटर भी लगा दिए। जिस दिन भी उनकी छुट्टी होती, वे कुदाल पकड़कर प्लॉट में चले जाते।

कृषि और बागवानी का शौक उन्हें बचपन से ही था। गाँव में कई एकड़ पूस्तैनी जमीन थी उनकी और कृषि कार्य उनका पूस्तैनी कार्य था।

बचपन के दिनों में खेतों में खूब हल चलाया करते थे वे। निराई, गुडाई और कटाई सहित सबकुछ खेती का काम आता था उन्हें। उनके यहाँ कृषि के अधिकांश कार्य मरदों द्वारा किए जाते हैं, महिलाएँ घर का चौका-चूल्हा सँभालती हैं।

नौकरी लग जाने के बाद तो बीस-पच्चीस वर्षों तक उन्होंने कभी हाथ में कुदाल नहीं पकड़ी थी।

वर्ष में एक-दो बार गाँव जाते थे, किंतु किसी विशेष अवसर पर ही। पूजा, शादी-विवाह या अन्य अवसरों पर, किंतु तब कभी खेतों में जाने का अवसर ही नहीं मिलता था। सप्ताह-दो-सप्ताह तो मिलने-मिलाने में ही गुजर जाते थे।

अब जमीन का एक छोटा टुकड़ा यहाँ पर था, तो इसी में अपना शौक पूरा करने लगे थे। शौक क्या था, अच्छी-खासी सब्जी पैदा हो रही थी। थोड़ा-थोड़ा ही सही, लेकिन सभी कुछ उगा रखा था उन्होंने। जब वे सप्ताह में एक बार सब्जी तोड़कर घर लाते तो ताजा सब्जियाँ देखकर अम्माँ की आँख चमक उठती।

"ए जी! यह सब अपने ही खेत में उगा है क्या?" वह पूछती। "नहीं, बाजार से लाया हूँ, तुम्हें उल्लू बनाने के लिए।" शास्त्रीजी मजाक करते तो अम्माँ शरमाकर झेंप जाती।

"अरे, किसान का बेटा हूँ, सारी तरकीब जानता हूँ किसानी की। यदि जमीन थोड़ा और बढ़कर होती, तो तुझे दिखाता कि सब्जी पैदा कैसे होती है," शास्त्रीजी हेकड़ी हाँकते।

"बस-बस, रहने दो अपनी किसानी, इतना ही गरूर था तो मास्टर क्यों बने, कर लेते किसानी।" अम्माँ भी मजाक करती।

"मास्टरगिरी तो तेरे चक्कर में करनी पड़ी, यह न करता तो गाँव की मिट्टी से सनी पड़ी रहती गाँव में, यहाँ बनी हुई है हीरोइन की तरह।" शास्त्रीजी और चिढ़ाते।

"अच्छा जी, तो तुम कहते हो कि मैं यहाँ मौज कर रही हूँ?" नकली गुस्से में कहती अम्माँ, "चलो, मैं तो गाँव जा रही हूँ। सँभाल लेना अपने इन आधे दर्जन बच्चों को।"

"ऐसे मत करना, वरना मैं तो कहीं का नहीं रहूँगा, चलो माफी माँगता हूँ।" शास्त्रीजी जैसे गिड़गिड़ाते।

"हाँ, अब आए न रास्ते पर।" अम्माँ ऐसे दिखलाती मानो कोई बहुत बड़ा युद्ध फतह कर लिया हो। अपने वैवाहिक जीवन में हमेशा ताजगी बनाए रखी उन्होंने। कभी भी अम्माँ से मन-मुटाव या बेरूखी नहीं रखी उन्होंने। बाहर से गंभीर दिखनेवाले शास्त्रीजी अम्माँ के साथ खूब हँसी-मजाक करते थे।

अपने हाथों से उगाई सब्जी खाने में कुछ अलग ही स्वाद आता। साथ ही आत्म-संतुष्टि भी होती।

यह क्रम लगातार तीन वर्षों तक चलता रहा।

पूरे पाँच वर्ष बीत गए। अब वहाँ पर प्लॉट नजर नहीं आते, पूरी बस्ती बन गई है वहाँ पर। एक-एक कर सबने अपने मकान बना लिये हैं, बिजली और पानी आ गया है, टेलीफोन की तारें खिंच गई हैं।

सुंदर सीमेंट की सड़क बन गई है, केवल इक्का-दुक्का प्लॉट ही खाली बचे हैं, जिनमें शास्त्रीजी का भी एक प्लॉट है।

धनाभाव के कारण ही वे इस पर मकान नहीं बना पाए थे। छह-छह बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठाया उन्होंने अपनी एक तनख्वाह में। दो-दो बेटियों की शादी की। इतनी बड़ी जिम्मेदारियों को उठाने के लिए उन्होंने अब तक मेहनत की। स्कूल से आने के बाद एक नहीं, तीन-तीन घरों में ट्यूशन पढाने जाते रहे वे।

अम्माँ ने भी कम मेहनत नहीं की। घर का सारा बजट, राशन, तेल, कपड़े, किराया आदि सब पूरा करना उसके जिम्मे था। शास्त्राजा तो सिर्फ सब्जी का बजट अपने पास निकालकर सारा पैसा रख देत थे उसके हाथ में और फिर उनका अपना झंझट खत्म।

उन्हें तो यह तक मालूम नहीं था कि आटा, चावल और तेल कितने रुपए किलो हैं। राशन लाने के लिए अम्माँ खुद बाजार जाती। शास्त्रीजी की तनख्वाह मिलने के दूसरे ही दिन वह घर की सभी जरूरतों के हिसाब से एक सूची तैयार कर लेती और फिर पूरे महीने की सामग्री बाजार से एक साथ लाकर घर में रख लेती।

मकान शुरू करने के बाद शास्त्रीजी छह महीने के लिए और व्यस्त हो गए। सुबह ही प्लॉट पर चले जाते और फिर दोपहर को खाना खाने लौटते। दो घंटे आराम करके फिर चले जाते।

मकान का ढाँचा छह महीने के अंदर-अंदर खड़ा कर दिया था उन्होंने। अपनी सारी बचत लगा दी थी उसमें, अब दोनों बेटे भी कमाने लायक हो गए थे। मन को संतोष हो गया था कि अब उन्हें कम-से-कम पैसे की तंगी का सामना नहीं करना पड़ेगा।

घर बनाने से पहले ही दोनों बड़े बेटों की शादी भी कर दी थी उन्होंने, सो अब थोड़ा-बहुत घर खर्च दोनों बड़े बेटे भी भेज दिया करते थे।

सारा कुछ करने के बाद अभी दो महीना पूर्व ही गृह-प्रवेश किया था उन्होंने इस घर में। अब बड़े प्रसन्नचित्त रहने लगे थे वे। दिनचर्या भी कुछ व्यवस्थित हो गई थी उनकी। उनका अधिकांश समय अब घर को सजाने-सँवारने में ही व्यतीत होता। कहते हैं कि मकान का काम कभी भी पूरा नहीं होता, कभी कुछ तो कभी कुछ चलता ही रहता है। ऐसे ही शास्त्रीजी भी व्यस्त रहते थे।

लेकिन ईश्वर को तो कुछ और ही मंजूर था, शायद। उनकी खुशियाँ रास नहीं आई थी ईश्वर को, असमय ही अपने पास बुला लिया था उन्हें।


छह

रात किसी तरह से कट गई। सुबह पाँच बजे बड़ी बहू ने सबके लिए चाय बनाई। खामोशी के साथ ही सबने चाय पी और एक-एक कर दैनिक क्रिया से निवृत्त होने चले गए।

दो-चार दिन ऐसे ही चलता रहा। अम्माँ का दिल भी लगा रहा, रोते-रोते अब उसके आँसू भी सूख गए थे। अब वह वक्त-बेवक्त शास्त्रीजी से जुड़ी यादों के किस्से उन लोगों को सुनाती, तो सभी ध्यान से सुनते। बेटियों, दामादों और सगे-संबंधियों से घर भरा रहा, धीरे-धीरे एक-एक कर सब जाने लगे।

दोनों बेटियाँ और दामाद भी आँखों में आँसू लिये विदा हुए। रह गए अब अम्माँ और उसका परिवार।

बड़ा बेटा नौकरी पर दिल्ली लौट गया। दूसरी की नौकरी इसी कस्बे में थी। उसने भी अब ड्यूटी पर जाना शुरू कर दिया। कुलदीप और जयदीप ने भी अपना कॉलेज शुरू कर दिया।

जीवन अब पुराने ढर्रे पर चल निकला। अम्माँ ने अब अपने को व्यस्त करने की कोशिशें की, किंतु शास्त्रीजी की यादों को वह भुला नहीं पाती। हर क्षण उसे शास्त्रीजी का स्मरण हो आता। कभी मन बहल भी जाता, तो छुटकी याद दिला देती, "दादीजी, मेरे दादाजी कहाँ गए हैं, वे कब लौटेंगे?"

मासूम छुटकी के प्रश्नों का क्या जवाब देती अम्माँ, बस बहलाने के लिए कह देती, "बेटी, उन्हें भगवान् ने अपने पास बुला लिया है।"

"दादीजी, भगवान् ने उन्हें अपने पास क्यों बुलाया?" वह अगला प्रश्न दाग देती।

"क्योंकि वे अच्छे इनसान थे। भगवान् अच्छे लोगों को अपने पास बुला लेते हैं।" जवाब देती अम्माँ।

"तो भगवान् आपको अपने पास क्यों नहीं बुलाते? आप भी तो अच्छी हैं।" पुनः मासूम सा सवाल करती छुटकी।

गहरी साँस लेकर अम्माँ मन-ही-मन कहती, 'काश, भगवान् ने उनसे पहले मुझे ही अपने पास बुला लिया होता, लेकिन मेरे ऐसे नसीब कहाँ।'

छुटकी की समझ में यह पहेली नहीं आती, तो वह अन्य कई प्रकार के सवाल करती। उसके बालमन के प्रश्न कई बार अम्माँ को उद्वेलित कर देते।

अम्माँ मन-ही-मन घुटती रहती, कुछ न कहती। बस अपने काम किए जाती। बड़ी बहू ज्यादातर समय साफ-सफाई और अपनी बेटी की देखरेख में बिताती, तो छोटी बहू घर के छोटे-मोटे कार्य करती। खाना बनाना और बरतन आदि धोना अम्माँ ने अपने जिम्मे रखा। अभी से बैठ जाएगी, तो हाथ-पैर भी जवाब दे जाएँगे, इसीलिए अधिक-से-अधिक हाथ-पैर चलाने की कोशिश करती।

शास्त्रीजी के जाने के बाद घर की अर्थव्यवस्था में भी कुछ नया मोड़ आ गया। पहले सारे घर का खर्चा अम्माँ स्वयं देखती थी। शास्त्रीजी अपनी पेंशन अम्माँ के हाथ में रख देते थे। दोनों बेटे भी अपने घर खर्च का एक हिस्सा अम्माँ को जमा कर देते थे। घर अच्छे से चल रहा था। पर अब बेटों ने भी अपना घरखर्च अम्माँ के बजाय अपनी-अपनी पत्नियों के पास देना शुरू कर दिया।

पारिवारिक पेंशन तो तब थी नहीं। सो अम्माँ का हाथ अब काफी तंग रहने लगा। पहली बार इस बात का अहसास अम्माँ को उस दिन हुआ, जब कुलदीप ने अपने कॉलेज की फीस के लिए अम्माँ से पैसे माँगे।

पैसे होते तो अम्माँ देती। पहले से ही चारों भाई हमेशा जरूरतों के अनुसार अम्माँ से ही पैसे माँगा करते थे, किंतु अब अम्माँ के पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं थी। देती कहाँ से? सो दूसरे बेटे दिनेश से कहा, "दिनेश! इस कुलदीप को कॉलेज की फीस चाहिए।"

"फीस चाहिए तो तुमसे क्यों माँग रहा है। मुझसे माँगते हए शर्म आ रही है क्या इसे?" बड़े भाई ने कहा और फीस के पैसे कुलदीप के हाथ में रख दिए, लेकिन तभी बहू भी बाहर आकर बोली, "ठीक है देवरजी, अबकी बार तो तुम पैसे ले लो, लेकिन ये हमारी ही जिम्मेदारी नहीं है हमेशा के लिए।"

सुनते ही अम्माँ के कानों में जैसे बम का धमाका हुआ हो। उसे उम्मीद नहीं थी कि छोटी बहू ऐसा बोलेगी। उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। आज तक तो कभी यह जिम्मेदारी का सवाल आया ही नहीं था। एक ही तो परिवार है सारा। आज तक तो सारे घर के खर्चों को अपनी छोटी सी तनख्वाह में पूरा किया था शास्त्रीजी ने।

अम्माँ को अब महसूस होने लगा कि घर के मुखिया के जाने के बाद घर के बड़े सदस्यों और उनकी बहुओं ने भी रंग बदलने शुरू कर दिए हैं। अम्माँ अब चिंतित हो उठी। ऐसे में कैसे पढ़ाई होगी इन दोनों की। अभी शास्त्रीजी को गुजरे दिन ही कितने हुए हैं और अब जिम्मेदारियों का सवाल उठाकर बहू ने दिल छलनी कर दिया।

सबकुछ सुन-समझकर भी अनसुनी कर दी अम्माँ ने। अनसुनी करने के अलावा और कोई रास्ता भी तो नहीं था उसके पास। सबसे भली चुप्प। कहती भी तो क्या कहती? यदि कुछ कहती, तो बहू से भी कछ और जवाब मिलता, इससे विवाद और बढ़ जाता, फायदा कुछ भी नहीं था।

अब अम्माँ को पूरा भरोसा हो गया कि उसके बुरे दिन नजदीक आ गए हैं। आज छोटी बहू ने मुँह खोला तो कल जिम्मेदारी का वास्ता देकर बड़ी बहू भी कुछ-न-कुछ जरूर बोलेगी।

रात भर सोचती रही अम्माँ क्या करें, क्या न करें। ये दोनों बड़े तो नौकरी लग गए, इनकी शादियाँ भी हो गईं, किंतु इन दोनों छोटे बेटों का क्या होगा? इन हालातों में कैसे पूरी होगी इनकी पढ़ाई?

अपनी सारी उम्र तो उन्होंने अभावों में ही काट दी। केवल इस सपने के सहारे कि कल चार-चार कमाऊ पूत होंगे और घर में चार-चार कामकाजी बहुएँ होंगी, तो कोई कमी नहीं रहेगी। शास्त्रीजी भी हमेशा यही सपना उसे दिखाया करते थे, किंतु शास्त्रीजी की मौत के साथ ही अम्माँ को ये सपने अब झूठे नजर आने लगे। उसे लगने लगा कि जिन कल्पनाओं के सहारे उसने इतना जीवन जिया, वे सब एक ही अंधड़ में बिखर गई है। शास्त्रीजी की मौत भी तो किसी अंधड़ से कम नहीं थी उसके लिए। उसकी सारी कल्पनाएँ, सारी खुशियाँ, सारे सपने एक साथ विलीन हो गए थे इस अंधड़ में।

सोचती रही अम्माँ, आखिर छोटी बहू का यह कहना कहाँ तक उचित था। पहली बार ही तो फीस माँगी थी छोटे भाई ने। जब पिता नहीं रहे, तो कौन फीस देगा? बड़े भाई ही तो करेंगे पूरा, उन्हीं का तो फर्ज भी है। आखिर बड़ा भाई भी तो पिता की तरह ही होता है। फिर दोनों बड़े भाइयों को भी तो पिता ने ही पढ़ा-लिखाकर नौकरी पर लगवाया था। उन पर भी तो पैसा खर्च हुआ, उनकी भी तो फीस देनी पड़ी है। वे ऐसे ही तो फ्री में नहीं पढ़े, ऐसे ही तो नौकरी पर नहीं लगे।

यह बात बेटे तो समझेंगे, किंतु बहुएँ कहाँ समझेंगी कि अब छोटे भाइयों की जिम्मेदारी उन्हीं की है। उन्हें तो लगता होगा कि जैसे उन्होंने अपने पति को विवाह के पहले दिन देखा है। यह ऐसे ही इतना ही बड़ा पैदा हुआ हो जैसे। उसके साथ माँ-बाप ने कितने कष्ट उठाए होंगे, कितना संघर्ष किया होगा, उसके जैसे कोई मायने ही नहीं।

अरे, घरवाली आ गई तो माँ-बाप और भाई-बहिनों के प्रति किसी का भी फर्ज समाप्त थोड़े ही हो जाता है। हाँ, पत्नी और बच्चे भी अपनी जगह हैं, पर वे ही तो सबकुछ नहीं हैं। अम्माँ बुरी तरह उत्तेजित सी हो उठी थी।

इस घटना के बाद तो अम्माँ घर में भी बड़ी शंकित रहने लगी। अब शास्त्रीजी की याद उसे ज्यादा ही सताने लगी थी। जीवन के किस पड़ाव पर शास्त्रीजी ने साथ छोड़ दिया था उसका। अभी तो यह छोटी सी बात सुनी है उसने बहू के मुँह से, आगे न जाने क्या-क्या सुनना पड़ेगा? कल्पना करके ही सिहरन सी दौड़ जाती थी उसके शरीर में। ईश्वर करे उसे यह सब न देखना पड़े। शास्त्रीजी की तरह उसकी भी आँखे बंद हो जाए तो अच्छा है।

'भागोंवाली अम्माँ' हाँ, यही तो नाम दिया था लोगों ने उसे! क्या इसी को भाग कहते हैं?

आज अम्माँ को बार-बार शास्त्रीजी के वे शब्द याद आ रहे थे, जो उन्होंने रिटायरमेंट की रात को सोने से पहले कहे थे। शास्त्रीजी ने बड़े ही उत्साह और प्रसन्नता भरे स्वर में कहा था, "लो भागवान! आज 'सरकार' की सेवा से मुझे मुक्ति मिल गई है, तो मैं पूरी तरह तुम्हारी 'सेवा' करूँगा।"

अम्माँ तो शास्त्रीजी की बात सुनकर लाज से भर उठी थी और पति का हाथ पकड़कर बोली थी, "अजी, चलो भी! क्यों मुझे पाप की भागी बना रहे हो?"

और शास्त्रीजी ने गद्गद स्वर में कहा था, "मैं आज जो भी हूँ, तुम्हारी सेवा और त्याग के कारण ही तो बन पाया हूँ।" अम्माँ निहाल हो गई थी।

अचानक उसकी सोच सकारात्मक दिशा की ओर मुड़ गई। चलो कोई बात नहीं, एक-आध वर्ष की ही तंगी है। ये दोनों छोटे भी नौकरी पर लग जाएँ तो किसी को कुछ कहने का मौका ही नहीं रहेगा। अपना क्या है, एक प्राण है। कुछ भी खा लेगी और इन सबकी खुशियाँ देखकर ही खुश रह लेगी।

दोनों छोटे भाइयों की पढ़ाई, नौकरी और फिर शादी की चाह अम्माँ को जीने के लिए प्रेरित करती रहती थी। उसे लगता कि अपने लिए तो नहीं, अपितु इन दोनों के लिए और इनके घर बस जाने तक उसका जीना जरूरी है। बस, यही सोच अम्माँ के भीतर फिर से ताकत भर देती और उसके मन में जीने की इच्छा फिर बलवती हो उठती।

 

सात

पिता की मृत्यु हुए छह माह बीत गए थे। इस दौरान बड़ा बेटा। घर आया। दो दिन घर में रहा, दूसरे दिन रात्रि को खाना खाते समय उसने माँ से कहा, "माँ मैं अपनी पत्नी और बेटी को साथ ले जाना चाहता हूँ।"

अम्माँ अचानक बेटे के इस प्रस्ताव से हतप्रभ रह गई।

"बेटा, यहाँ पर उसे कोई कमी तो है नहीं। फिर छुटकी के साथ मेरा भी मन लगा रहता है।" कहा अम्माँ ने।

"हाँ, कमी तो कुछ नहीं है; पर मुझे ही दिक्कत हो रही है। रात की ड्यूटी रहती है तो खाना बनाने की बड़ी दिक्कत आ रही है।" समझाया सरेश ने।

अम्माँ कुछ बोल पाती, इससे पूर्व ही दिनेश बोल उठा, "ठीक ही तो कह रहा है भाई, जब दिक्कत है तो साथ में जाने दो, दो रोटी तो बनी हुई मिलेगी।"

"लेकिन बेटा...।" कुछ कहना चाहती थी अम्माँ, लेकिन बीच में ही छोटी बहू बोल पड़ी-

"अब अपनी-अपनी समस्याएँ हैं सबकी। इस घर की तो हमेशा ही समस्या रहेंगी। हमें अपनी समस्या भी तो देखनी है।"

चुप रही अम्माँ! ऐसा लगता है कि इन लोगों ने पहले ही आपस में सहमति बना ली थी। कुलदीप और जयदीप चूपचाप रहे। असल में मामला उनसे संबंधित भी नहीं था। वे इसमें बोलते भी क्या? आगे दो बड़े भाई थे, जो वे चाहेंगे, उसी में उनकी भी सहमति होनी स्वाभाविक थी।

"ठीक है, जैसे तुम सब लोगों की मरजी।" कहकर अम्माँ ने हथियार डाल दिए।

यहाँ तक तो सब ठीक-ठाक था, किंतु जब इससे आगे अम्माँ ने सुरेश का प्रस्ताव सुना, तो उसके होश उड़ गए।

"माँ!" सुरेश ने आगे कहा, "हम दोनों भाइयों ने तय किया कि इन दोनों छोटे भाइयों की जिम्मेदारी के लिए आपस में बँटवारा कर दिया जाए।"

"बँटवारा?" कुछ समझ नहीं पाई थी अम्माँ। संपत्ति का बँटवारा तो सुना था, किंतु जीते-जागते इनसानों का बँटवारा? समझ में नहीं आया अम्माँ के। कैसे बाँटेंगे ये भाइयों को? क्या ऐसा कहीं होता होगा दुनिया में? सुना तो नहीं था आज तक। आज पहली बार मनुष्यों के बँटवारे की बात सुनी।

"हाँ, माँ !" अबकी बार दिनेश बोला, "कुलदीप की पढ़ाई पूरी हो गई है, अब उसे नौकरी की तलाश करनी है, सो वह भाई के साथ दिल्ली रह लेगा। वहीं अपने लिए नौकरी ढूँढ़ लेगा। रहा जयदीप, तो वह मेरे हिस्से में आएगा।"

सुनकर अवाक् रह गई अम्माँ। यह कैसा बँटवारा हो रहा है? जीते-जागते इनसानों का बँटवारा? उसे लगा मानो उसके शरीर के दो टुकड़े कर दिए गए हों।

दोनों भाइयों के फैसले के आगे वह कुछ नहीं बोल पाई, दोनों छोटे भाई क्या कहते, चुपचाप रहे। मौन स्वीकृति भी दे दी, कहते भी क्या बेचारे।

फिर सुरेश ने कुलदीप को कल ही दिल्ली चलने का फरमान सुना दिया। कुलदीप कल दिल्ली जाने की तैयारी करने लगा। बुरा तो जयदीप को भी बहुत लगा, किंतु मजबूरी थी। आखिर कुलदीप को नौकरी के लिए कभी-न-कभी तो बाहर जाना ही था। फिर यह तो अच्छा ही था कि अपना बड़ा भाई दिल्ली में है, उसके साथ रह लेगा। कम-से-कम एक ठौर-ठिकाना तो रहेगा, वरना आजकल नौकरी के लिए कहाँ-कहाँ नहीं भटकना पड़ता।

सुबह जब सब जाने लगे तो अम्माँ की आँखों में आँसू थे। बहू और बेटे के बिछड़ने का गम तो था ही, साथ ही छुटकी से बिछड़ने का उसे ज्यादा मलाल था। उसके साथ समय अच्छा कट जाता था। उसकी मीठी-मीठी और भोली-भाली बातों में वह अपना सारा दु:ख भूल जाया करती थी।

अब कैसे रह पाएगी वह छुटकी के बिना। छोटे बेटे की तो अभी तक कोई संतान नहीं थी। अब घर में सूनापन पसर जाएगा।

सब लोगों ने विदाई ली। कुलदीप की आँखों में भी आँसू छलक आए।

"माँ, तुम अपना खयाल रखना।" बस इतना ही कह पाया था वह।

"तू भी अपना ध्यान रखना।" भीगी आँखों से कहा था अम्माँ ने।

छुटकी को प्यार से सहलाकर अम्माँ ने कई बार चूमा तो छुटकी बोल पड़ी, "दादी, आप रो क्यों रही हो।"

"मुझे तुम्हारी याद आएगी बहुत।" भरे गले से बोली अम्माँ।

"तो तुम भी हमारे साथ चलो न।" मासूमियत से बोली छुटकी। कुछ जवाब नहीं दे पाई अम्माँ।

सब लोग चले गए तो अब घर में सूनापन उसे बहुत खलने लगा।

जयदीप सुबह कॉलेज चला जाता, तो उसके बाद वह किसी से बात करने तक के लिए तरस जाती। बहू अपने ही कामों में व्यस्त रहती। कभी-कभार मुहल्ले की औरतें आ जाती, तो कुछ देर मन बहल जाता; पर वे भी कितनी देर बैठतीं? सबके अपने-अपने काम हैं। अम्माँ ने अब किसी शुभकारिज में भी घर से बाहर निकलना बंद कर दिया था, पूरी तरह जैसे घर में कैद होकर रह गई थी वह।

रसोई पर अब बहू ने अपना अधिकार जमा दिया था। अम्माँ के पास अब सफाई, झाड़-पोछा का काम ही बच गया था। फिर भी कोशिश करती कि बहू के साथ कुछ हाथ बँटाए, लेकिन बहू उसे खुद कुछ न करने देती। बस दो टाइम का खाना उसके सामने ऐसे रख देती, मानो वह इस घर में मेहमान हो। ऐसा ही व्यवहार जयदीप के साथ भी करती। सुबह स्कूल के लिए निकलते समय नाश्ता अम्माँ खुद उसे अपने हाथों से देती, किंतु सायं का खाना उसे बहू अम्माँ के साथ ही उनके कमरे में दे जाती। दोनों देवर-भाभी में कोई खास बात भी नहीं होती। भाई कभी-कभार उसकी पढ़ाई के बाबत पूछ भर लेता। बस, इससे ज्यादा और कुछ बात नहीं होती।

एक माह पूरा गुजर गया था। इस बीच अम्माँ को कुलदीप की कोई खबर नहीं मिली। चलो, छोटा तो अपने सामने है, किंतु कुलदीप न जाने कैसा होगा दिल्ली में? टाइम पर खाना खा भी रहा होगा या नहीं? तब से न तो उसकी कोई चिट्ठी आई और न ही उसके बड़े भाई ने कोई खबर भेजी। उसकी नौकरी का प्रबंध हुआ होगा या नहीं, इसी उधेड़बुन में अम्माँ के दिन निकलते।

इधर छोटी बहू का स्वभाव दिन-ब-दिन कुछ अलग किस्म का होने लगा था। अब वह छोटी-छोटी बातों पर ताना देने लगी थी। जयदीप के प्रति तो उसका व्यवहार और भी सख्त सा होता जा रहा था, इस बात को अम्माँ ने महसूस किया।

कॉलेज की फीस के लिए जब जयदीप ने पैसे माँगे, तो बेरूखी से बहू बोली, "देवरजी, कब तक पढ़ते रहोगे? अब तो कुछ करने की भी सोचो, आखिर कब तक यूँ हाथ फैलाते रहोगे।" कुछ नहीं बोला था जयदीप ने, लेकिन भाभी की बात का उसे इतना बुरा लगा कि दूसरे दिन से ही उसने ट्यूशन पढ़ानी शुरू कर दी।

सुबह घर से निकलता तो देर रात तक ही आता। दिन का खाना-खाने तक घर नहीं आता। पहले दिन का खाना वह घर पर ही खाता था, अब घर आना बंद किया, तो किसी ने नहीं पूछा, सिवाय अम्माँ के।

"जग्गू, कहाँ रहता है तू दिन भर? खाना-खाने क्यों नहीं आता।"

"बस माँ, समय नहीं मिलता, तो बाहर ही कुछ-न-कुछ खा लेता हूँ।" संक्षिप्त सा जवाब दिया था जयदीप ने।

रात्रि को खाने में भी अम्माँ देखती कि वह बेमन से दो रोटी निगलकर उठ जाता। अम्माँ का दिल कराह उठता। शास्त्रीजी ने बड़े प्यार से रखा था उसे। छोटा था वह इसलिए सबसे ज्यादा प्यार करते थे उसे, उसके प्रति सपने भी बड़े-बड़े देखते। जितना चाहे पढ़ लेगा, फिर बड़ा अफसर बनेगा, तो मेरी सारी गरीबी दूर कर देगा। यूँ भी वह बचपन से पढ़ने में काफी तेज था, सो शास्त्रीजी को उसके प्रति अत्यंत विश्वास भी था।

अम्माँ की आँखें भीग आईं, दिल पर पत्थर रखकर अम्माँ ने घर का एक और बँटवारा कर दिया।

अपनी और जयदीप के लिए अलग रसोई तैयार कर दी। बहू तो कुछ नहीं बोली, लेकिन दिनेश ने जरूर पूछा था। "माँ, क्या तुम्हें यहाँ भरपेट नहीं मिल रहा था जो अलग रसोई कर दी?" अब अम्माँ उसे क्या बताती, बस बहाना बना दिया।

"दरअसल, जग्गू काफी दिनों से देर रात को आता है, फिर बहू को कठिनाई होती है। खाना दुबारा गरम करना पड़ता है।"

मन तो किया था कि उसे सारी परिस्थितियों से अवगत कराए, लेकिन ऐसा कर पाना उसे उचित नहीं लगा। क्या पता दिनेश यह सब सुनकर क्या प्रतिक्रिया करेगा? कहीं बहू को डाँट दिया तो दोनों के दांपत्य जीवन में कड़वाहट घुल जाएगी और ऐसा वह कभी नहीं चाहती थी। इसलिए उसने कुछ न कहना ही बेहतर समझा, चलो अच्छा है रोज का झंझट ही खत्म हो जाएगा। अभी तो उसके हाथ-पैर भी सलामत हैं। कर लेगी, जैसे भी करेगी।

अब एक ही घर में दो चूल्हे हो गए थे, एक तरफ दूसरा बेटा और उसकी पत्नी, तो दूसरी तरफ अम्माँ और छोटा बेटा।

दु:ख तो अम्माँ को ऐसा करते हुए बहुत हुआ था, किंतु अपने बेटे को अपने हाथ से गरम रोटी खिलाकर उसे जो आत्मिक संतोष मिलता, वह किसी भी दु:ख से कई अधिक सुखदायक था।

लेकिन जब रात को थककर अम्माँ सोने जाती, तो शास्त्रीजी की यादें अम्माँ को घेर लेतीं। एक बार जब अम्माँ ने शास्त्रीजी से अपनी ससुराल में बँटवारे की बात कह दी थी, तो त्यागमूर्ति शास्त्रीजी ने साफ-साफ कह दिया था-"अरी भागवान! हमने वहाँ दिया ही क्या है, जो बँटवारा करके वहाँ से लेने की बात सोचें?" और आज?... अम्माँ की आँखों से झर-झर आँसू झरने लगे "आज उसी बेटे और बहू से 'भागोंवाली अम्माँ' को बँटवारा करके निपट अकेले रहना पड़ रहा है, जिन्हें उसने दूध पिलाकर पाला था।

अम्माँ बहुत देर अपने अतीत को याद करके चुपचाप रोती रही और आखिर में नींद में खो गई।

 

आठ

लगभग छह माह बाद सुरेश परिवार सहित दिल्ली से घर आया। छुटकी की स्कूल की छुट्टियाँ पड़ी हुई थीं। तीनों के साथ कुलदीप को न देखकर अम्माँ का दिल अजीब आशंका से काँप उठा। ये तीनों अकेले आए हैं, मेरा कुलदीप क्यों नहीं आया?

कुलदीप जब से दिल्ली गया था, एक बार भी घर नहीं आया था। कभी सुरेश की चिट्ठी में ही उसकी कुशल-खबर मिल जाती थी, तो कभी वह स्वयं भी चिट्ठी भेज देता था माँ के नाम, लेकिन पिछले कुछ समय से उसकी तरफ से चिट्ठी भी नहीं आई, सो अम्माँ वैसे भी उसकी कुशलता को लेकर व्यग्र थी।

अम्माँ तो सोच रही थी कि कुलदीप भी साथ में घर आ रहा होगा, किंतु कुलदीप को न देखकर तो अम्माँ घबरा गई।

कहते हैं, दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंककर पीता है। शास्त्रीजी की अकस्मात् मृत्यु के पश्चात् तो अम्माँ का दिल बहुत कमजोर हो गया था। हर छोटी-बड़ी बात में उन्हें कुछ अपशकुन या कुछ अनहोनी की आशंका हो उठती थी। घूमने निकले शास्त्रीजी जिस तरह से केवल 20 मिनट में लाश के रूप में घर पहुँचे थे, तब से उसे काफी डर लगने लगा था। फिर उम्र के साथ-साथ इनसान का दिल भी कमजोर हो ही जाता है। धोखा खाए हुए इनसान को हर चीज में धोखे की बू आने लगती है।

कई बार वह मन में धीरज रखती, सब ठीक ही होगा, किंतु फिर मन नहीं मानता, अनेक प्रकार की दुश्चिंताएँ मन में घर बनाए हुए रहती।

कुलदीप को घर आया न देखकर मन में कई शंकाएँ एक साथ उभर आईं तो उसने तुरंत पूछ भी लिया, "बेटा, कुलदीप नहीं आया तुम्हारे साथ, वह ठीक तो है न?"

"हाँ माँ, वह बिलकुल ठीक है," सुरेश बोला, "उसकी नौकरी लग गई है। नई-नई नौकरी थी, इसलिए छुट्टी लेना ठीक नहीं था।"

सुनकर अम्माँ का हृदय प्रसन्न हो उठा। चलो भगवान् ने मेरी एक और मुराद पूरी कर दी। कितनी पागल है वह भी, क्या-क्या गंदे और निरर्थक विचार आ रहे थे उसके मन में। इस बात का विचार तो आया ही नहीं कि उसकी नौकरी लग गई होगी।

उसने अपना चेहरा आसमान की ओर उठाकर हाथ जोड़ दिए। भगवान् का आभार व्यक्त कर रही जैसे। चेहरा नीचे आया तो आँखें भीगी हुई थीं।

सुरेश और उसकी पत्नी ने माँ की भीगी आँखें देखीं। वे एक माँ की ममता की भावना समझ सकते थे।

माँ-बाप को अपने बच्चों से कितना स्नेह होता है, यह तो सुरेश को अब और भी अच्छी तरह मालूम हो गया। जब से वह पिता बना, तब से इस बात का अहसास उसे अच्छी तरह से हो गया था।

छुटकी को अपनी गोद में उठाकर अम्माँ ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा, "कितनी बड़ी हो गई है मेरी छुटकी, अब स्कूल भी जाने लगी है न?"

हाँ, दादी! मैं स्कूल जाती हूँ। वहाँ हमको ढेर सारा होमवर्क मिलता है।" छुटकी मासूमियत से बोली।

कुछ देर तक कुशल खबर और इधर-उधर की बातें हुईं, साँझ ढली तो अम्माँ ने छोटी बहू से कहा, "बहू, आज इन सबके लिए खाना मैं बनाऊँगी।"

पहले तो सुरेश को समझ में कुछ न आया, किंतु जब उसने अलग-अलग अम्माँ और दिनेश की बहू को सब्जी का इंतजाम करते देखा, तो उसे समझते देर न लगी कि घर के दो बँटवारे हो गए हैं। जानकर उसे दु:ख तो हुआ, लेकिन उसने माँ से इसकी वजह नहीं पूछी। सोचा कि न जाने क्या परिस्थिति रही होगी, यह तो ये ही लोग जाने।

रात्रि को सुरेश की पत्नी धीमे से बोली, "सुनो जी, क्या इस घर में हमारा कोई हिस्सा नहीं है?"

"हिस्सा सबका है, इसमें क्या बात हो गई।" सुरेश ने पूछा। "तो फिर केवल दो बँटवारे क्यों?" उसने दबे स्वर में पूछा।

"बँटवारा कहाँ हुआ, चूल्हे तो अलग हुए है उनके।" सुरेश ने समझाया।

"लेकिन...।" कुछ कहना चाह रही थी रश्मि, लेकिन बीच में ही सुरेश ने चुप करा दिया।

"तुम यह बात मत करो अभी, जब परीक्षाफल निकलता है, तब पता चलता है कि इन्होंने क्या पढ़ाई की, किंतु तब तक समय हाथ से निकल चुका होता है। कहीं जयदीप भी ऐसा ही तो नहीं कर रहा है। छोटे भाइयों की जिम्मेदारी भी हम पर ही तो है अभी।"

चुप हो गई थी रश्मि। कुछ और आगे न बोली।

इच्छा तो बहुत कुछ बोलने की थी, किंतु मौन साध लिया था। आखिर केवल एक सप्ताह के लिए ही तो आए हैं हम लोग। प्यार-प्रेम से कट जाए, तो अच्छा ही है।

इन तीन-चार दिनों में उसने महसूस किया कि कुलदीप सुबह घर से निकल जाता, दिन का खाना-खाने भी नहीं आता और देर रात्रि तक ही लौटता है। यह कैसी पढ़ाई कर रहा है वह। कहीं गलत संगत में तो नहीं पड़ गया। आजकल के लड़कों का कुछ पता नहीं चलता, कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। स्कूल-कॉलेज के नाम पर माँ-बाप का खूब पैसा खर्च करते हैं। पूछ ही लिया था उसने अम्माँ से।

"अम्माँ, ये छोटे देवरजी कहाँ रहते हैं दिन भर? रात को भी देर से घर लौटते हैं।" बहू कुछ तुनक भरे स्वर में बोली थी। .

"बहू, वह ट्यूशन पढ़ाता है, सुबह भी और शाम को भी। दिन में अपने कॉलेज जाता है, इसलिए आ नहीं पाता समय पर।" बताया अम्माँ ने।

"ट्यूशन पढ़ाते हैं?" आश्चर्य से पूछा रश्मि ने, "अपनी पढ़ाई पर ध्यान क्यों नहीं देते? ट्यूशन पढ़ाने की क्या पड़ी है उन्हें अभी?" बहू का तर्क था।

"वह अपना एवं मेरा खर्च खुद निकालता है, इसके लिए करता है यह सब।" अम्माँ ने भी थोडे तल्ख लहजे में बताया।

"लेकिन दूसरे देवरजी! वे नहीं उठाते आपका खर्चा?" रश्मि को आश्चर्य हुआ।

"एक-दो बार बहू ने बड़े अजीब से ताने मारे, तो तब से हमने चूल्हा भी अलग कर दिया और जयदीप ने भी ट्यूशन पढ़ाकर कुछ कमाना शुरू कर दिया।" साफ-साफ बता दिया था अम्माँ ने।

"अच्छा!" रश्मि का मुंह खुला-का-खुला रह गया। तो ये सब चल रहा है यहाँ। वह तो कुछ और ही सोच रही थी। जयदीप के बारे में सुनकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। जयदीप के प्रति उसका दिल पसीज गया। बेचारा सबसे छोटा है घर में, उसे तो सबसे ज्यादा मजे में रहना चाहिए था, किंतु इसके बजाय उसे तो जीने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। देवरानी के प्रति कटुता उभर आई उसके दिल में। जब वे दिल्ली गए थे, तब तो दोनों भाइयों के मध्य दोनों छोटे भाइयों का बँटवारा हुआ था। हम तो आज तक उस बँटवारे का पालन कर रहे हैं। छह महीने से पाल रहे हैं देवरजी को। वह भी दिल्ली की उस महँगाई में। और यहाँ ये लोग अपना चूल्हा तक अलग करके सारी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए हैं। घर के दो हिस्से में बँटवारा कर ये महारानी ऐश कर रही हैं। आखिर देवरजी की फीस कितनी जाती होगी, कितना राशन खाते होंगे माँ-बेटा? जब इन्हें समय से खाना नहीं मिला होगा, तभी तो अपनी रसोई अलग की होगी इन्होंने।

अम्माँ ने भी तो पहले नहीं बताया हमें सबकुछ। बताती भी कैसे, हमने ही कौन सी सुध ली थी उनकी? जाने के बाद अभी तो आए हैं हम छह माह बाद।

एक हम भी तो हैं, जो उस बँटवारे का पालन अभी तक कर रहे हैं। दिल्ली जैसी जगह में किसी को एक दिन भी खाना खिलाना कितना कठिन होता है? हम तो छह महीने से उसे लाड़-प्यार से खिला रहे हैं। यहाँ कौन सा ऐसा पहाड़ टूट गया, जो एक और बँटवारा कर दिया। बँटवारा करना ही था तो फिर चार हिस्से करते, दो ही हिस्से क्यों किए। रश्मि के मन में आक्रोश फूट पड़ा था।

देवर-देवरानी के प्रति गुस्सा भर गया था उसके मन में। अंदर से भूचाल आ गया था, किंतु प्रत्यक्षतः वह कुछ बोली नहीं।

अब तो वह फैसला करके रहेगी। आने दो छुटकी के पापा को। आज रात बात करेगी उनसे। ऐसा तो नहीं चलेगा। हम तो किराए के एक कमरे में गुजारा करें वहाँ और यहाँ यह महारानी आधे घर पर कब्जा करके ऐश कर रही है।

अपनी देवरानी के प्रति ईर्ष्या और आवेश से भरकर रश्मि अपने आप से ही बड़बड़ा रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे शास्त्रीजी की लगाई इस बगिया पर घोर संकट के बादल घिर आए हों।

 

नौ

जब से नौकरी लगी थी सुरेश की, तो उसे बहुत कम घर में रहने का मौका मिला। कभी-कभार छुट्टियों में घर आता था, तो घर की जिम्मेदारियाँ ही पूरी नहीं हो पाती थीं। लिहाजा कॉलेज के जमाने के यार-दोस्तों से भी मुलाकात नहीं हो पाती थी। पास-पड़ोस में भी कभी बैठने का मौका नहीं मिला था उसे।

इस बार वह एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आया था, सो उसने ठान ली थी कि घर पर रहने के बजाय वह यार-दोस्तों की कुशल खबर भी लेगा और गाँव में भी सबसे मिलेगा।

पिछले पाँच दिनों से उसका यही क्रम चल रहा था। सुबह नाश्ता करने के बाद निकल जाता और फिर साँझ ढले ही घर आता। कॉलेज के कई यार-दोस्त भी मिले, जो नहीं मिल पाए, उनके बारे में जानकारी मिली।

बचपन की यादें ताजा हो गई थीं, कितना बदल गया है समाज। यार-दोस्त भी कितने गंभीर हो गए हैं। सभी शादी के बाद जिम्मेदार और बाल-बच्चेदार हो गए हैं।

दो-तीन दोस्तों ने तो यहीं पर अपना कारोबार शुरू कर दिया है। दो दोस्त यहीं पर सरकारी नौकरी कर रहे हैं। एक दोस्त बी.डी.ओ. बनकर यहीं पर आया है।

सबसे एक-एक कर मिला वह, खूब बातें हुईं, हँसी-मजाक और चुटकले आदि सुनाने में दिन बीत गए।

सुरेश को अपने कॉलेज के दिन खूब याद थे। जी भरकर मौज-मस्ती की थी उसने भी अपनी कॉलेज लाइफ में। पिताजी उसे बड़ा आदमी बनाना चाहते थे। बहुत सजग थे वह उसकी पढ़ाई के प्रति, पर शुरू से ही सुरेश अपनी कक्षा में अव्वल कभी नहीं रहा। पढ़ाई से अधिक उसका मन यारी-दोस्ती में ही लगता था। पढ़ाई को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया उसने। शास्त्रीजी की पहली संतान थी वह। मास्टर लोग भी उसे इस नाते खूब प्यार करते थे। बस, इसी कारण थोड़ी चपलता आ गई थी उसके स्वभाव में।

किसी तरह से बी.ए. पास करके वह दिल्ली आ गया था। किस्मत से ही उसे एक कंपनी में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई थी। बस, तब से अब तक ऐसे ही चल रहा है। संतोष करना पड़ रहा है जीवन से।

पाँच दिन कट गए। अब परसों वापस जाना है। तैयारी भी करनी है लौटने की।

देर शाम को घर पहुंचा, तो पत्नी का मूड कुछ उखड़ा हुआ था। क्या हुआ होगा? कुछ गड़बड़ तो नहीं। जानने के लिए माँ के पास आकर बैठ गया।

"माँ तुम्हारी तबीयत कैसी रहती है अब?" पूछा उसने।

"अब तबीयत कैसी होनी है इस बुढ़ापे में। बस किसी तरह से दिन काट रही हूँ। दिल पे बस एक बात रह गई कि इन दोनों छोटों की शादी कर दूँ, तो गंगा नहा आऊँ।" दु:खी स्वर में कहा था अम्माँ ने।

"सब हो जाएगा अम्माँ, कुलदीप तो नौकरी लग ही गया, अब छोटा भी पढ़ाई पूरी कर लेगा तो उसे भी कहीं-न-कहीं नौकरी मिल ही जाएगी।" ढाढ़स दिया था उसने। हाँ, मुझे तो ज्यादा चिंता इस छोटे की है। इस पर ज्यादा बोझ आन पड़ा है। बस, भगवान् से यही प्रार्थना करती हूँ कि जल्दी-से-जल्दी नौकरी लग जाए, अपने पैरों पर खड़ा हो जाए।" अम्माँ ने बेटे को मन की बात बताई।

कुछ देर और बातें हुईं तो अम्माँ ने भोजन लगा दिया। जयदीप भी आ गया था।

"जयदीप, कितनी रह गई अब तेरी पढ़ाई?" पूछा सुरेश ने।

"बस भैया, अगले महीने परीक्षा है।" जयदीप बोला।

"फिर क्या विचार है आगे?'' पूछा सुरेश ने।

"एक-दो जगह फार्म भर रखे हैं, देखो क्या रहता है। वैसे मेरी मरजी तो आर्मी में जाने की है।" जयदीप बोला।

"अरे, इतना पढ़-लिखकर आर्मी में जाएगा क्या?" सुरेश ने पूछा।

"भैया, आर्मी में तो अब क्वालीफाइड लोग जा रहे हैं, अब तो आर्मी की नौकरी मिलनी सरल बात नहीं है।" जयदीप बोला।

"हाँ, यह तो ठीक कह रहा है तू। पिछले कुछ सालों से आर्मी के प्रति युवाओं का रूझान तो बढ़ा है।" सुरेश उसकी बात से सहमत होकर बोला।

"सिर्फ रूझान नहीं भैया, सम्मान भी बढ़ा है आर्मी के प्रति लोगों का। अब तो सबको समझ में आ गया कि सेना ही देश की सच्ची हितैषी है।" जयदीप ने कहा।

"हाँ, यह तो बिलकुल सच है, पहले लोग आर्मी और आर्मी के जवान को बहुत हलके में लेते थे।" सुरेश ने सहमति दी।

सुरेश ने इस बात को अच्छी तरह महसूस किया कि अपनी उम्र की तुलना में जयदीप काफी गंभीर है। शायद परिस्थितियों ने उसे ऐसा बना दिया है, वरना उसकी उम्र में तो वह काफी चंचल था। अपने भविष्य और नौकरी के बारे में तो उसे कभी सोचने का मौका ही नहीं मिला।

खाना खाकर सुरेश अपने कमरे में चला गया। छुटकी अभी तक दादी के ही पास ही थी। रश्मि भी कुछ देर बाद खाना खाकर आ गई।

"रश्मि, छुटकी को भी ले आओ।" सुरेश बोला।

"दादी के पास है, अभी ले आती हूँ।" कहकर रश्मि बाहर चली गई।

कुछ देर बाद छुटकी भी आ गई, तो वह उसके साथ खेलने लगा। खेलते-खेलते छुटकी सो गई तो, रश्मि ने बत्ती बुझा दी।

"आज कुछ सुस्त लग रही हो। तबीयत तो ठीक है तुम्हारी?" बात करने के उद्देश्य से सुरेश ने पूछा।

"मेरी तबीयत की चिंता क्या है तुम्हें।" रूखाई से कहा रश्मि ने। "अरे, तबीयत खराब है तो बताना चाहिए था।" कहा सुरेश ने।

"किसे बताती, आपको फुरसत होती तब न।" व्यंग्य किया रश्मि ने।

"चलो, अच्छा अब तो बताओ, क्या हुआ है?" प्यार से पूछा उसने।

"कुछ नहीं, बस सिरदर्द है थोड़ा सा।"

"चलो सिर दबा देता हूँ।" मनाने वाले अंदाज में कहा सुरेश ने। "नहीं, जरूरत नहीं है, अब ठीक है।" रश्मि बोली।

कुछ देर खामोशी रही, फिर रश्मि ने ही बात आगे की, "कल आप कहीं मत जाना। जाने की तैयारी भी करनी है।" रश्मि ने कहा।

"क्या तैयारी करनी है, कपड़े ही तो पैक करने हैं? वह तो मैं एक घंटे में कर दूंगा।" लापरवाही से बोला सुरेश।

"ढेर सारा काम है। छुटकी को होमवर्क करवाना है। कपड़े धोने को हैं, प्रेस करने को है।" रश्मि गिनाने लगी।

"सब हो जाएगा बाबा। कल कहीं नहीं जाऊँगा बस।" कहा सुरेश ने।

"ठीक है, बाद में हड़बड़ी मत करना।" चेतावनी दी रश्मि ने। सिर्फ मुसकरा भर दिया सुरेश। चाहती तो थी रश्मि कि सुरेश से घर के बँटवारे के विषय पर खुलकर बात करें, किंतु अपनी बात कहने के लिए उसे यह उचित समय नहीं लगा। चाहने के बाद भी वह भूमिका नहीं बना पाई। किसी भी बात को कहने का कोई उचित अवसर होता है, तभी उस बात का सकारात्मक असर भी होता है। अब केवल कल का ही दिन शेष है। इसलिए ठीक जाने से पहले घर में कोई तनाव पैदा करना ठीक नहीं होगा, सो रश्मि ने मन की बात मन में ही दबा दी। उसने तय किया कि अब दिल्ली जाकर ही इस विषय पर अपने पति सुरेश से बात करेगी।


दस

दिल्ली पहुँचने के बाद एक दिन तो रश्मि को घर व्यवस्थित करने में लग गया। हालाँकि देवर तो यहीं था, फिर भी दूसरी जगह से आने के बाद अस्त-व्यस्तता महसूस तो होती ही है।

हर स्त्री अपना घर-बार अपने हिसाब से व्यवस्थित करती है। उसमें थोड़ी सी भी अव्यवस्था उनको बरदाश्त नहीं होती। रश्मि भी इस छोटे से घर को बड़ी तहजीब से सँवारती थी। कई बार तो उसकी पति से भी नोक-झोंक हो जाती थी इस मामले में।

सुरेश थोड़ा लापरवाह किस्म का आदमी था। ऑफिस से आने के बाद कहीं कपड़े, तो कहीं जूते छोड़ देने, सुबह नहाने के पश्चात् गीला तौलिया बाथरूम में ही छोड़ देना, ब्रुश करने के बाद दूसरी जगह रख देना। अपनी डायरी-पेन कहीं और रख देना, ये सब बातें ऐसी थीं, जिसके लिए रश्मि उसे बार-बार टोकती रहती थी।

वह चाहती थी कि जो चीज जहाँ है, वहीं व्यवस्थित रखी जाए और तो और उसे चाय के, खाने के बरतन की जगह भी उसी तरह चाहिए जैसी उसने तय कर रखी है।

सुरेश उसकी इसी आदत से परेशान तो रहता था, किंतु क्या करता? अपनी भी तो आदतें खराब थीं। बचपन से ही अपने प्रति काफी लापरवाह था वह। इसका एक कारण यह भी था कि अम्माँ ने भरपूर प्यार और सुविधाएँ दी थीं उसे। कभी एक लोटा पानी तक नहीं उठाया था उसने घर में, सबकुछ अम्माँ ही व्यवस्थित किया करती थी।

घर से लौटने के बाद पूरा दिन साफ-सफाई करती रही रश्मि। हालाँकि घर काफी साफ-शुद्ध बना रखा था कुलदीप ने, फिर भी उसे दूसरे के कामों में कुछ-न-कुछ खामी नजर आ ही जाती। इधर के बरतन उधर, यहाँ के कपड़े वहाँ करते-करते कमर दुख गई थी उसकी। काफी थक भी गई थी। सायं को उसने जल्दी खाना बनाया और लेट गई, कल से छुटकी का भी स्कूल था और पतिदेव का ऑफिस भी।

एक सप्ताह घर रहने के पश्चात् अब उसे किराए के इन दो कमरों में घुटन महसूस हो रही थी। हालाँकि वहाँ भी घर छोटा ही था, किंतु खुली-खुली जगह थी। बाहर भीतर, बाएँ-दाएँ चारों तरफ खुला सा। ताजा हवा और सुंदर नजारे।

यहाँ तो तंग और बदबूदार गलियों के किनारे कीड़े-मकोड़े की तरह जीवन-यापन करना पड़ता है। दो कमरों की इस गृहस्थी में कितना मुश्किल होता है एक परिवार का गुजारा करना, ऊपर से देवर अलग से यहीं रहता है।

घर में देवर और देवरानी के ठाठ बार-बार उसके मन-मस्तिष्क को झकझोर रहे थे। कितना उन्मुक्त जीवन जी रहे थे वे लोग? न कोई जिम्मेदारी, न ही किसी तरह का कोई तनाव।

सायं को खाना खाने के बाद बिस्तर साफ करते हुए, सने अपने दिल की बात होंठों तक ला ही दी।

"सुनो जी!" वह धीरे से बोली।

"सुनाओ जी।" उसी तर्ज में सुरेश भी बोला।

"देवरजी की अब नौकरी लग गई है।"

"यह तो खुशी की बात है।"

"हाँ, खुशी की बात तो है, पर मैं कुछ और कहना चाह रही हूँ।" रश्मि ने बात को गंभीरता की ओर मोड़ा।

"तो वह भी कह दो।" सुरेश उसी मजाकिया अंदाज में बोला।

"मैं कह रही थी कि अब उनको अपना इंतजाम खुद अलग से करना चाहिए।" मूल विषय पर आ गई थी वह।

"क्या?'' सोते से जैसे जाग गया हो सुरेश, "यह क्या कह रही हो तुम?

"ठीक ही तो कह रही हूँ। अब हमारी बच्ची भी बड़ी हो रही है, दो कमरों के इस घर में जगह की तंगी अलग से है।" रश्मि ने अपनी बात पूरी की।

"लेकिन रश्मि, अभी उसकी नई-नई नौकरी है। कहाँ जाएगा वह?" सुरेश ने समझाते हुए पूछा।

"कहीं भी जाए। इतनी बड़ी दिल्ली पड़ी है। लोग नहीं रह रहे क्या यहाँ।" बेरूखी से कहा रश्मि ने।

"ऐसा क्यों कहती हो, वह भी तो कुछ-न-कुछ कमाकर दे रहा है तुम्हें, फिर छुटकी को स्कूल छोड़ना-लाना, बाजार से सामान लाना, इतनी सब मदद तो करता है हमारी।" तर्क दिया सुरेश ने।

"तो तुम यह समझते हो कि उसकी कमाई से ही हमारा घर चल रहा है। उसका दिया हुआ तो उसके साबुन-पेस्ट के लिए भी पूरा नहीं होता, रही बाजार से सामान और छुटको को छोड़ने-लाने की बात, तो वह मैं स्वयं भी कर सकती हूँ। इतना वक्त तो है ही मेरे पास।" रश्मि ने उसके तर्क का अकाट्य जवाब दिया।

"लेकिन रश्मि, हमारा कुछ फर्ज भी तो है उसके प्रति। फिर माँ क्या सोचेगी।" लाचार सुरेश ने आखिरी हथियार फेंका।

"आ हा हा हा...।" उँगलियाँ हवा में नचाकर रश्मि बोली, "फर्ज का ठेका क्या अकेले तुमने ले रखा है उम्र भर? यहाँ हम इतनी तंगी में जीकर गुजारा कर रहे हैं और तुम कहते हो कि माँ क्या सोचेगी। माँ उनके बारे में नहीं सोचती, जो वहाँ मौज कर रहे हैं।" कुछ कड़वाहट भरे लहजे में बोली रश्मि।

कोई जवाब नहीं था सुरेश के पास, रश्मि ने ही आगे बोलना शुरू किया।

"हम तो समझते थे कि वहाँ अम्माँ और देवरजी का खर्चा दूसरे देवर उठा रहे हैं, किंतु अम्माँ और देवरजी तो खुद अपना खर्चा उठा रहे हैं। दूसरे वालों की तो पाँचों उँगलियाँ घी में और सिर कड़ाही में है।"

"छोड़ो रश्मि, तुम कहाँ की बातें लेकर बैठ गई।" बात को टालने के उद्देश्य से सुरेश बोला।

"मेरी बातें तो तुम्हें फिजूल की लगती हैं। आखिर कब अक्ल आएगी तुम्हें। देखना एक दिन पछताओगे जरूर।" रश्मि ने भी बात समाप्त कर दी, लेकिन उसे इस समय अपना पति दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख लग रहा था। एक हफ्ता घर में गुजारने पर, सबकुछ अपनी आँखों से देखने के बाद भी, अक्ल नहीं आई इस आदमी को। आखिर कब तक इस तरह फर्ज-फर्ज और जिम्मेदारी की रट लगाकर रखेगा। अपने भविष्य की कुछ भी चिंता नहीं इसे तो।

बच्ची अब धीरे-धीरे बड़ी कक्षाओं में जाएगी, उसकी फीस में भी बढ़ोतरी होगी। एक छोटी सी तनख्वाह में कैसे चलेगा? फिर कभी सुख-दु:ख के लिए अपने पास थोड़ी-बहुत बचत भी तो होनी चाहिए। कल लडकी को कछ कोर्स कराना होगा तो कहाँ से एकमस्त पैसा आएगा? उसके हाथ पीले करने होंगे, यह सब कैसे होगा? बचत के नाम पर आज कुछ भी तो नहीं हमारे पास? कब तक जीते रहेंगे हम ऐसी जिंदगी? काफी तनाव महसूस कर रही थी वह।

सुरेश ने करवट बदलकर सोने का उपक्रम किया, किंतु नींद तो उसकी आँखों से दूर कर दी थी रश्मि ने। एक हद तक उसे रश्मि की बातों में कुछ सच्चाई भी प्रतीत हुई। आखिर रश्मि उसकी पत्नी है, जो कुछ भी कहेगी उसकी भलाई के लिए ही कहेगी। बात आगे न बढ़े, इसलिए नींद का बहाना करके चुपचाप लेटा रहा वह।

 

ग्यारह

दिल्ली जैसे महानगर में किराए का कमरा ढूँढ़ना तो सचमुच। भगवान् को ढूँढने से कम न था। नई-नई नौकरी, सीमित तनख्वाह और ऊपर से इतनी महँगाई। दिल्ली का कुलदीप को अभी कुछ खास अनुभव भी नहीं था। केवल सात महीने ही तो उसे यहाँ पर हुए थे। नौकरी की तलाश में हालाँकि उसे काफी दिन दिल्ली में भटकना भी पड़ा था, किंतु इसके बावजूद भी वह यहाँ के सड़क, मार्गों, मुहल्लों, सेक्टरों और बस्तियों से पूरी तरह परिचित नहीं हो पाया था।

मगर क्या करता आखिर कुलदीप। कल अचानक भाभी ने घर-गृहस्थी अलग करने का फरमान जो सुना दिया था उसे।

कल ही की तो बात है। सुबह जब वह छुटकी को स्कूल छोड़कर नाश्ते की टेबिल में बैठा, तो भैया नहीं दिखे।

"भैया कहाँ गए भाभी?" पूछा था उसने।

"कल रात वे जरा देर से सोए, तबीयत खराब है उनकी।" कुलदीप को बताया था रश्मि ने।

"तो मैं दवाई ले आता हूँ।" तुरंत खड़ा हो गया था कुलदीप।

"नहीं-नहीं, इतनी भी खराब नहीं है। सिर दर्द बता रहे थे सुबह। अभी उठाती हूँ, उन्हें भी तो ऑफिस जाना है अपने। तुम नाश्ता कर लो।" रश्मि ने नाश्ता परोस दिया था।

"देवरजी, एक बात कहूँ, तो बुरा तो नहीं मानोगे' भूमिका बाँधते हुए कहा था रश्मि ने।

"नहीं भाभी! बुरा क्यों मानूँगा, आप कहिए तो।"

"दरअसल, अब तुम्हारी भी नौकरी लग गई है और इधर छुटकी भी बड़ी हो रही है, तो यहाँ पर जगह की कमी पड़ रही है।" रश्मि ने बात आगे बढ़ाई। भाभी का इशारा समझ नहीं पाया था कुलदीप। कुछ और ही सोचकर बोला, "तो क्या दूसरा घर ढूँढना है?"

"नहीं-नहीं। मैं कह रही थी कि अब आप अपना इंतजाम कहीं और कर लेते तो ठीक रहता।" बोली रश्मि।

पैरों तले की जमीन खिसक गई कुलदीप की, मुँह में रखा रोटी का कौर मुँह में ही रह गया था।

भाभी की बात सुनकर झटका लगा था उसे। उम्मीद भी नहीं थी कि वह ऐसा कह देंगी। अभी कुल छह-सात महीने ही तो हुए हैं उसे दिल्ली में इनके साथ। फिर दो-ढाई महीने से वह भी तो तनख्वाह का एक हिस्सा भाभी के हाथ में ही रख रहा है। ऐसी क्या मुसीबत आ गई कि अचानक आज घर में जगह कम पड़ने लगी।

अपने को संयत कर लिया था उसने। मुँह में रखा रोटी का कौर निगला और किसी तरह से नाश्ता पूरा किया। उठते हुए बोला, "ठीक है भाभीजी। जैसा आप उचित समझती हैं, मैं आज से ही कमरे की तलाश करता हूँ।"

"देखो, आप मेरी बात का बुरा न मानना, पर मैंने यह बात इसलिए कही कि, कभी-न-कभी तो आपको अलग होना ही है।" मुलायम स्वर में बोली रश्मि।

"नहीं भाभी, आप ठीक कहती हैं।" और खाने की टेबल से उठ गया था कुलदीप।

फिर कल से ही उसने कमरा तलाशने का कार्य शुरू किया। कई जगह घूमा, कई कमरे देखे। कुछ तो पसंद ही नहीं आए. जो पसंद भी आए तो किराया इतना अधिक था कि आधी तनख्वाह उसी में निकल जाती। फिर उसे यह भी देखना था कि कमरा ऐसी जगह मिले, जहाँ से वह एक ही बस में बैठ कर ऑफिस जा सके। दिल्ली में तो यही सबसे बड़ी दिक्कत है कि ऑफिस जाने के लिए दो-दो, तीन-तीन बसें बदलनी पड़ती हैं। ऐसे में पैसे तो ज्यादा लगते ही हैं, साथ ही समय भी अधिक लगता है।

थक-हारकर उसने निर्णय लिया कि किसी पार्टनर को मिलाकर वह कमरा ले लेगा। उसे अपनी ही कंपनी में अपने ही कस्बे के नजदीक का एक लड़का मिल गया। कंपनी में वह काफी पुराना था। अब तक उसके साथ उसकी पत्नी रह रही थी, किंतु घर में माताजी की मृत्यु के बाद वह पत्नी को घर छोड़ आया था।

लंच के समय कुलदीप को कंपनी के गेट से बाहर जाते हुए देखकर उसने पूछ लिया था।

"किधर जा रहे हो कुलदीप?" भूपेंद्र ने पूछा। कुलदीप ने उसे अपनी पूरी समस्या बतला दी थी।

"अरे, इसमें परेशान होने की बात क्या है। मैं भी आजकल अकेला रह रहा हूँ, पत्नी घर गई है। पाँच-छह महीने तक वहीं रहेगी, यदि तुम चाहो तो मेरे साथ आकर रह लो।" बेहद अपनेपन से भूपेंद्र ने कहा।

बात पसंद आ गई थी कुलदीप को। जमी-जमाई गृहस्थी थी भूपेंद्र की, सो उसे फिलहाल गृहस्थी जोड़ने में कोई खर्चा भी नहीं करना पडेगा। कमरे का आधा किराया देना है और आधा राशन-पानी

का खर्चा करना होगा। वह भी काफी सस्ता पड़ेगा। सो उसने अपनी सहमति दे दी और रविवार से साथ में आने को कह दिया।

भूपेंद्र भी खुश हो गया। वह भी पार्टनर की तलाश कर रहा था। दो महीने से वह अकेले ही इन दो कमरों का किराया दे रहा था। ऊपर से अकेलेपन में खाने-पीने में भी दिल नहीं लग रहा था। पत्नी तो अभी छह-सात महीने में आएगी, तब की तब ही देखी जाएगी। तब यदि कुलदीप कमरा अलग कर लेगा या वह स्वयं ही अपने लिए दूसरा ढूँढ लेगा।

फिलहाल तो बात बन ही गई। कुलदीप स्वभाव से भी अच्छा लड़का है।

पढ़ा-लिखा है, साथ ही उससे बड़ी पोस्ट पर उसी की कंपनी में है। अपने घर के नजदीक का है, सो अलग। पिछले दो-ढाई माह से वह कुलदीप के साथ कार्य कर रहा था। इस दौरान उसने कुलदीप का व्यवहार और विचार पूरी तरह समझ लिया था। उसके व्यवहार में शालीनता और वाणी में मधुरता थी।

"अरे शुभ काम में देरी किस बात की। रविवार ही क्यों? कल बृहस्पतिवार है, सबसे बढ़िया दिन। कल ही आ जा बोरिया-बिस्तर उठाकर।" भूपेंद्र ने उसकी रविवार को आने की बात पर कहा, तो बात कुलदीप को भी बात अँच गई। जब भाभी ने फरमान सुना ही दिया और कमरा अलग करना ही है, तो फिर एक-दो दिन क्या देखने हैं? कल ही आ जाएगा यहाँ। सामान भी क्या है उसके पास। एक बिस्तर, एक कपड़ों की अटैची और अपनी कुछ कॉपी-किताबें। कुल मिलाकर तीन सामान होते हैं, कॉपी-किताबें वह किसी पेटी में डालकर पैक कर लेगा। एक रिक्शा या थ्री व्हीलर कर पहुँच जाएगा भूपेंद्र के यहाँ, टेंशन खत्म।

"हाँ, यह भी ठीक है, तो मैं ऐसा करता हूँ कि कल नौ बजे तक यहाँ आ जाऊँगा सामान लेकर, फिर यहीं से ऑफिस चला चलूँगा।" कुलदीप बोला।

"नौ बजे क्यों? पहले ही आ जाना, नाश्ता मैं तैयार करूँगा।" भूपेंद्र ने उसे और उत्साहित किया।

"चलो, यह भी ठीक रहेगा।" उसकी बात मान ली थी कुलदीप ने।

सायं को कुलदीप जब घर पहुँचा तो उसके हाथ में गत्ते की एक बड़ी पेटी देखकर भाभी ने आश्चर्य से पूछा, "अरे, यह क्या है?"

"पैकिंग के लिए लाया हूँ भाभीजी।" बताया कुलदीप ने।

"पैकिंग के लिए?" आश्चर्य से पूछा रश्मि ने।

"हाँ, मुझे कमरा मिल गया।"

"कमरा मिल गया?" अनायास ही एक झटका सा लगा रश्मि को। कुलदीप ने भी यह बात साफ महसूस की।

"अरे, तो मैंने यह थोड़ी कहा था कि तुम कल ही घर से चले जाओ।" अपने को संयत करती हुई रश्मि ने कहा, "आराम से चले जाते, दो-एक महीने में।"

"ऐसी कोई बात नहीं भाभी, जाना तो था ही, कल क्या और एक-दो दिन बाद क्या? कुलदीप ने मुसकराकर कहा, तो कुलदीप की यह मुसकराहट रश्मि को जैसे चीरती हुई चली गई।

कुछ जवाब नहीं दे पाई रश्मि, "चलो, जैसे तुम्हारी इच्छा, पर बुरा मत मानना तुम।"

"बुरा किस बात का, कौन सा मैं लंदन जा रहा हूँ। आता रहूँगा अपनी छुटकी को देखने।" कुलदीप ने अपनत्व से कहा।

अबकी बार रश्मि भी मुसकरा दी थी। कुलदीप तो दूसरे ही दिन कमरे का प्रबंध कर लेगा, रश्मि को विश्वास नहीं था। रश्मि को मालूम था कि दिल्ली जैसी जगह में कमरा ढूँढने में कितनी मुश्किलें आती हैं। दस बजे से छह बजे तक उसकी नौकरी और फिर जहाँ भी वह कमरा ढूँढने जाता छह बजे बाद ही जाता, इसीलिए उसने कमरा अलग करने की बात उसके कान में डाल दी थी। वह तो सोच रही थी कि एक-दो महीने बाद ही जा पाएगा वह।

हालाँकि कुलदीप को कमरा मिल जाने से वह खुश भी थी, लेकिन अंदर-ही-अंदर यह भी डर था कि कहीं सुरेश उस पर नाराज न हो जाए? लेकिन वह समझा लेगी सुरेश को किसी-न-किसी तरह।

 

बारह

अम्माँ किसी तरह से अपने दिन निकाल रही थी। इस आशा में कि कल जयदीप की नौकरी लग जाए तो उसे एक और फर्ज से निजात मिल जाएगी।

सुबह से ही उसकी दिनचर्या शुरू हो जाती और देर रात जयदीप जब खाना खा लेता, तो फिर उसकी दिनचर्या का समापन होता, लेकिन ऐसे में भी उसे कभी मुश्किलें नहीं आई, बल्कि एक आत्मसंतुष्टि का ही अहसास हुआ।

दूसरी बहू भी एक बेटी की माँ बन गई थी। पर दूसरी बहू के साथ अब अम्माँ और छोटे जयदीप के दिन-ब-दिन संबंध कटु से कटुतर होते चले जा रहे थे। न जाने किस मिट्टी की बनी थी बहू कि हर बात में लड़ने को तैयार बैठी रहती थी।

जयदीप कभी-कभार छोटी को अपनी गोद में उठा लेता, तो किसी-न-किसी बहाने वह उसे वापस ले लेती।

काम-काज करते वक्त जब बहू छोटी को छोड़ देती तो वह रोती रहती। अम्माँ उसे अपने पास ले आती, तो उसे यह भी नहीं सुहाता।

"रहने दो अम्माँ इसकी आदत खराब हो जाएगी गोदी में रहने की।" वह टोक देती। अम्माँ समझती तो सबकुछ थी, पर कहती कुछ भी न थी।

वक्त की सुई लगातार आगे बढ़ती जा रही थी। इसी दौरान कुलदीप भी दीपावली की छुट्टी में घर आ गया।

माँ के लिए सूती धोती, जयदीप के लिए पैंट-कमीज, भाभी के लिए साड़ी, भाई के लिए कुरता-पजामा, तो छोटी के लिए गरम सूट लेकर आया था वह। खूब खर्च किया था उसने घर आने के लिए। आखिर पूरे डेढ़ वर्ष बाद वह घर आया था, वह भी नौकरी लगने के बाद पहली बार।

उसे देखकर अम्माँ बहुत खुश हुई, आज तीनों बेटे उसके पास थे। कमी थी तो बड़े बेटे की।

कितना भरा-पूरा घर लग रहा था। आज शास्त्रीजी होते तो कितना खुश होते। कुलदीप ने ही बताया था कि बड़े भइया भी तीन-चार दिन बाद छुट्टी में घर आ रहे हैं। सुनकर अम्माँ की खुशी का ठिकाना न रहा।

कुलदीप घर आने से पहले भाई के कमरे में हो आया था। रविवार को वहाँ जाते समय वह छुटकी के लिए दो-तीन खिलौने, कलर पेंसिल का सेट और कुछ चॉकलेट आदि भी ले गया था। छुटकी उसे देखते ही उससे चिपट गई थी।

भैया तो बहुत ही खुश हुए। भाई तो आखिर भाई ही होता है। आँखों से आँसू छलक आए थे उसके, "क्यों रे? अब आ रहा है पूरे तीन महीने बाद।" प्यार से उसकी छाती पर मुक्का मारा था उसने।

"क्या बताऊँ भैया, टाइम लगता ही नहीं।" कहा कुलदीप ने।

"संडे में कहाँ मस्ती मारता है।" मजाक किया सुरेश ने।

"मस्ती कहाँ भैया, संडे को तो काम ही इतना हो जाता है कि बस। कपड़े धोना-सुखाना, सफाई करना, करते-करते मेरी तो कमर दुख जाती है।"

"तो फिर कामवाली ले आओ न।" भाभी चहकी थी।

"कामवाली रखूँगा तो खाऊँगा क्या दिल्ली में?" कहा कुलदीप ने।

"अरे, ऐसे कामवाली नहीं, परमानेंट कामवाली की बात कर रही हूँ बुद्ध।" समझाया भाभी ने। उसका इशारा शादी को लेकर था। शरमा गया था कुलदीप।

यही बात तो घर आकर अम्माँ ने भी सबसे पहले कही थी।

"हे भगवान्! कितना कमजोर हो गया है रे तू। खाना नहीं खाता

क्या?"

"क्यों नहीं खाता माँ।" हँसकर कहा उसने।

"तो फिर यह हालत क्यों बना रखी है?" चिंतित माँ ने पूछा था। फिर अपने आप जवाब भी दे दिया था, "अच्छा मुझे मालूम है। खुद खाना बनाना पड़ता होगा। कपड़े, झाड़-पोछा सब करने पड़ते होंगे।"

"हाँ माँ, वह तो करना ही पड़ता है।" कहा कुलदीप ने।

"तू चिंता मत कर, मैं शीघ्र ही तेरा यह सब इंतजाम करवाती हूँ।" माँ ने कहा था तो कुलदीप हँस पड़ा।

"अरे माँ, ऐसी कोई जल्दी नहीं है।" वह बोला।

"अरे, तुझे नहीं जल्दी, मुझे तो है। कितना कमजोर हो गया मेरा बेटा। दो टाइम की रोटी मिलेगी तो आराम से तो खाएगा।"

हर माँ की यही इच्छा होती है कि जब बेटा अपने पैरों पर खड़ा हो जाए, तो वह उसके लिए बहू ले आए। यह इच्छा अब अम्माँ के दिल में बलवती हो उठी थी।

तीसरे दिन सुरेश भी परिवार सहित घर आ गया। साथ में एक नया मेहमान भी था, यानी छुटकी का छोटा भाई अभी एक माह पहले ही बेटे को जन्म दिया था रश्मि ने। इसकी सूचना उन्होंने घर भी भिजवा दी थी।

आज पूरे परिवार में दस सदस्य थे। रौनक आ गई हो जैसे घर में। चार सदस्य सबसे बड़े के परिवार के, तीन सदस्य दूसरे के परिवार के, दो छोटे बेटे और स्वयं अम्माँ या यों कहो कि चार बेटे, दो बहुएँ, तीन नाती-नातिन थे आज अम्माँ के पास।

यदि किसी की कमी खल रही थी, तो वह थी शास्त्रीजी की। आज शास्त्रीजी होते, तो उन्हें अपना भरा-पूरा परिवार एक साथ देखकर कितनी खुशी होती, दिल में एक टीस जैसी उभर आई अम्माँ की।

"बेटे, आज तुम्हारे पिताजी होते, तो कितना खुश होते, सबको एक साथ बैठा देखकर।" अम्माँ की आँखें भर आई।

पिछले एक डेढ़ वर्ष में इतना कुछ संघर्ष और इतनी कुछ परेशानियों के बाद भी अम्माँ सबकुछ भूल बैठी थी। उसे आज अपने को मिला नाम 'भागोंवाली अम्माँ' जाने क्यों, फिर सार्थक नजर आ रहा था।

यह बात नहीं कि बेटों को अपने पिता की याद नहीं आती थी, लेकिन पुरुष स्वभाव के कारण वे जब-तब इसे व्यक्त नहीं करते थे। चारों भाई अपने पिता के प्रति असीम श्रद्धा रखते थे। पिता के जाने के बाद उनकी कमी हमेशा खलती रही चारों को। यदा-कदा यह बात वे आपस में भी व्यक्त भी कर लेते।

चूल्हे तो दो हो चुके थे। परिवार बड़ा हो गया था। इसलिए यह हल निकाला गया कि आजकल एक ही चूल्हा कर दिया जाए। खाना बड़ी बहू और छोटी बहू मिलकर बनाएँगी।

छुट्टियाँ बस कुछ ही दिन की थीं। सो अम्माँ उचित समय देखकर कुलदीप की शादी के बारे में भी सबकी जिम्मेदारी तय करने की बात सोच रही थी।

अगले दिन चारों भाइयों को एक साथ बैठा देखकर अम्माँ ने ही बात शुरू कर ही दी।

"देखो तुम चारों भाई एक साथ बैठे हो इस समय। मैं तमसे इस कुलदीप की शादी के बारे में बात करना चाह रही थी।" अम्माँ ने भूमिका शुरू की। "तुम्हारे मामा ने कुछ महीने पहले एक कुंडली भेजी है। परिवार अच्छा है और मुझे पसंद है। अपनी बिरादरी के भी हैं। यहीं उत्तराखंड में ही रहते हैं। तुम लोगों की क्या राय है?"

दोनों बड़े भाई चुप रहे। दोनों को अंदर से यह डर सता रहा था कि शादी के लिए दोनों को खर्चा करना पड़ेगा। अभी तो इसकी नौकरी लगे छह सात महीने ही हुए हैं। पैसा कहाँ जमा किया होगा इसने इतना।

"लेकिन अम्माँ," बड़े ने कुछ कहना चाहा, तो अम्माँ ने उसे तुरंत टोक दिया, "लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। तुम तीनों बड़े भाई कल ही ननिहाल होकर आ जाओ। लड़की देख आओ और साथ ही घर-बार भी।" कोई कुछ न बोला। लेकिन अंदर-अंदर दोनों बडे भाइयों की बेचैनी बढ़ गई। अम्माँ के पास तो कुछ नगद है नहीं, छोटों को कुछ कह नहीं सकते, ऐसे में इस शादी का खर्चा उनके ही सिर पर आन पड़ेगा।

दूसरे ही दिन तीनों भाई ननिहाल चले गए। मामाजी ने लड़की वालों के यहाँ संदेश भेज दिया। वहाँ से तीनों लड़की वालों के घर होकर भी आ गए। कुलदीप को लड़की पसंद आ गई थी। बारहवीं कक्षा पास थी, घर-बार भी ठीक था। लड़की के पिता की दुकान थी, साथ में एक जीप भी थी, जिसे लड़की का बड़ा भाई चलाता था।

दोनों बड़े भाइयों को परिवार पसंद आ गया। घर आकर उन्होंने अम्माँ को सारा विवरण बता दिया। अम्माँ ने भी अपनी सहमति दे दी।

"कुलदीप तैयार है, तो सबकुछ ठीक है।" ठीक तो सबकुछ है, लेकिन असली समस्या तो खर्चे की थी, जो उन्हें खाए जा रही थी।

अम्माँ ने दूसरे ही दिन मामा को खबर भेजकर बात भी पक्की करवा दी। साथ ही सीधा शादी का दिन निश्चित करने को भी कह दिया।

उधर से संदेशा आ गया कि ठीक चार महीने के बाद ही शादी का शुभ दिन निकल आया है। दोनों बड़े भाइयों की तो धड़कनें बढ़ गईं। दोनों मन-ही-मन परेशान हो रहे थे, लेकिन अपनी परेशानी दोनों ने अपने तक ही सीमित रखी, एक-दूसरे के साथ कुछ भी व्यक्त नहीं किया।

धड़कनें कुलदीप की भी बढ़ गई थीं, किंतु खर्चे के डर से नहीं, बल्कि शादी की कल्पना से। जब से उसने माधुरी को देखा था, तो बस उसी की कल्पना में खोया रहता। कितनी सुशील है, साथ ही सुंदर भी। तीखे नयन-नक्श, लंबे काले बाल, बड़ी-बड़ी आँखें और भरी पूरी देह। सादगी और सौम्यता की प्रतिमा हो जैसे।

दीपावली का त्योहार हँसी-खुशी और प्यार-प्रेम से गुजर गया, तो दिल्ली वाले दोनों भाई भी अपनी नौकरी पर लौट गए। दोनों बड़े भाइयों को इस बात का सुकून था कि चलो कम-से-कम शादी के खर्चे के बारे में तो कोई बात नहीं हुई, लेकिन उन्हें चिंता भी खाए जा रही थी कि शादी का दिन तो अम्माँ ने चार महीने बाद तय करवा दिया, किंतु खर्चा आएगा कहाँ से और व्यवस्था होगी कैसे? बड़ा सोच रहा था कि दिल्ली में इतनी मुश्किल से गुजारा हो रहा है, जो थोड़े-बहुत दो पैसे बुरे वक्त के लिए बचाए थे, वह अब यहाँ लगाने पड़ेंगे।

दूसरी तरफ दूसरा भाई भी यही सोच रहा था। इतनी जल्दी क्या थी इसकी शादी की, एक-दो साल कमा लेता, तो हम भी सस्ते में निबट जाते।

 

तेरह

अम्माँ का शरीर दिन-ब-दिन दुर्बल होता जा रहा था। अब उसके दिल में बस दो तमन्नाएँ रह गई थीं। एक कुलदीप की शादी हो जाए और दूसरा जयदीप की कहीं नौकरी लग जाए।

इनसान का जीवन भी बड़ा अजीब होता है। इच्छा और आशाओं पर ही सारा जीवन व्यतीत हो जाता है इनसान का। फिर भी आशाएँ लगातार बलवती होती जाती हैं, किंतु आशाएँ कभी पूर्ण नहीं हो पातीं।

एक इच्छा पूरी हुई कि दूसरी खड़ी हो जाती है।

कभी अम्माँ सोचती थी कि हे भगवान्, मेरे ये लाड़ले किसी तरह बड़े हो जाएँ। बड़े हो गए तो, हे भगवान्, ये पढ़-लिख जाएँ। यह भी हो गया तो, हे भगवान्, इनकी नौकरी लग जाए, वह भी हो गया, तो इनकी शादी हो जाएँ। शादी हो जाए तो इनके बच्चे हो जाएँ।

कितना मोह होता है इनसान को अपनी औलाद से। और उससे भी ज्यादा मोह होता है औलाद की औलाद से।

अम्माँ की भी यही स्थिति थी। नानी तो वह कब की ही बन गई थी, फिर दादी बनने का मोह भी पूरा हुआ। अब चाहती है कि दोनों छोटों की भी शादी हो जाए, नौकरी लग जाए, उसके बाद फिर दोनों छोटों के बच्चों को देखने का मोह पैदा होगा। खैर, यह इनसान की फितरत है। हमारी तो बहुत सारी इच्छाएँ होती हैं, किंतु उनको पूरी करने की शक्ति केवल ईश्वर के पास है।

यह कोई भी नहीं जानता कि ईश्वर ने किसके भाग्य में क्या लिखा है? हम कर्म करते जाते हैं और अपेक्षा करते हैं कि इसके बदले हमें सुख मिलेगा, बस इसी आस में जीवन कटता जाता है। कई बार इनसान जो कुछ सोचता है, वह मिल नहीं पाता और कई बार इनसान का सोचा हुआ, अकस्मात् ही फलीभूत भी हो जाता है।

भागोंवाली अम्माँ के भाग्य में एक और खुशी दे दी ईश्वर ने। छोटे बेटे जयदीप की नौकरी लगने के रूप में। जयदीप को शुरू से ही फौज की नौकरी बहुत पसंद थी, इसके कई कारण भी थे उसके पास! पढ़ाई के पश्चात् वह सेना में ही भरती होना चाहता था। इसके लिए वह अवसर की तलाश में था। वह पता करता रहता था कि फौज की भरती कब-कब और कहाँ-कहाँ हो रही है। कुछ दिन पहले ही वह भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की भरती की लाइन में लगा था। उसका कॉल लेटर आ गया था। लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई के हिसाब से वह एकदम फिट था। पहली बार में ही वह फिजिकल टेस्ट में निकल गया, फिर आई मेडिकल की बारी और उसमें भी वह बहुत आसानी से पास हो गया।

खुशी की सीमा नहीं रही अम्माँ की। एक-एक कर उसके सभी अरमान पूरे होते जा रहे थे। जब-जब उसको कोई खुशी नसीब होती, तो उसे शास्त्रीजी के न होने का गम बहुत अधिक सालता। जितनी खुशी मिलती, उतना ही शास्त्रीजी के न होने का गम भी होता, पर ईश्वर के आगे सारी मानवीय सत्ता मौन होती है। केवल ईश्वर की ही सत्ता की सत्यता है।

यह सोचकर अम्माँ अपना दु:ख कम करने की कोशिश करती।

छोटा अपनी ड्यूटी पर चला गया, उसे छह महीने की ट्रेनिंग करनी थी। कुलदीप की शादी के लिए अब मात्र एक महीना और बच गया था। इधर अब समस्या यह हो गई थी कि जयदीप इस शादी में शामिल नहीं हो पाएगा, क्योंकि ट्रेनिंग के दौरान छुट्टियाँ नहीं मिलतीं, ऐसा अम्माँ को भी पता था।

फिर क्या करें? क्या शादी फिलहाल पीछे कर दें। अम्माँ ने बहुत सोचा, पर दिल ने यही कहा कि शादी पीछे करना ठीक नहीं है, कई बातें हैं। इस दौरान क्या पता, मुझे ही कुछ हो जाए या लड़की वालों का मन बदल जाए। सो शादी होगी, अगले महीने ही, ऐसी मन में अम्माँ ने ठान ली थी।

लेकिन शादी होगी कैसे? शादी के नाम पर तो अभी कुछ भी तैयारी नहीं हुई, न राशन-पानी भरा है, न बहू के लिए कपड़े-गहने बनाए हैं, फिर कैसे होगा सबकुछ इतनी जल्दी? जैसे-जैसे दिन नजदीक आ रहे थे अम्माँ का दिल घबराने लगा था।

कई बार दूसरे बेटे दिनेश को भी इस बाबत पूछा तो वह मौन साध लेता था।

"माँ, बड़े भाई को भी तो पूछ, वह क्या कहता है।" बस, यही कहकर वह बात टाल देता। समय कम रह गया था, सो थक-हारकर अम्माँ ने चिट्ठी लिखवाकर बड़े को तुरंत घर आने को कह दिया। अम्माँ को आज महसूस हुआ कि जीवन भर उन्होंने अपने सुख-दु:ख के लिए कोई पूँजी जमा नहीं की। पैसों के नाम पर कुछ भी नहीं था अम्माँ के पास। अपनी पूरी उम्र में उसने शास्त्रीजी से अलग एक भी पैसा जमा नहीं कराया था, न ही शास्त्रीजी ने अपने बाद कुछ छोड़ा था उसके लिए। कई बार वह शास्त्रीजी से इस बाबत कहती भी थी कि अपने सुख-दु:ख के लिए तो थोड़ा-बहुत कुछ रख लो।

उसे याद आए, वह दिन जब शास्त्रीजी ने अपनी सेवा निवृत्ति के बाद सारा पैसा घर बनाने में लगा दिया था। उसने तब कहा भी था शास्त्रीजी से कि घर छोटा सा बनाओ। भगवान् सुख रखेगा तो कल बच्चे अपने आप इसे बढ़ा लेंगे, लेकिन शास्त्रीजी उसकी बात कब मानते थे। चार बेटों और चार बहुओं के हिसाब से चार कमरे, किचन, लैट्रीन-बाथरूम कुल मिलाकर काफी बड़ा बन गया था घर, जिसमें सारी रकम खर्च हो गई थी।

"अपने लिए भी कुछ बचाकर रखा है आपने।" एक दिन पूछ लिया था अम्माँ ने।

"अपने लिए?" आश्चर्य से पूछा था शास्त्रीजी ने, "किस लिए?"

"अरे, अपने सुख-दुःख के लिए कुछ तो जमा-पूँजी चाहिए न थोड़ा-बहुत।" समझाया था अम्माँ ने।

खिलखिलाकर हँसे थे शास्त्रीजी, "अरे, जरूरत क्या है? चार-चार बेटे हैं अपने, वे ही तो हमारी पूँजी हैं।" शास्त्रीजी ने बड़े गर्व से कहा था।

कितना विश्वास था उन्हें अपने बेटों पर। विश्वास हो भी क्यों नहीं, आखिर अपने जीवन का एक-एक क्षण, एक-एक पैसा सबकुछ बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में ही तो खर्च किया था उन्होंने। पैसों का लालच कभी भी नहीं रहा उन्हें। वह भगवान् से हमेशा यही प्रार्थना करते थे कि हे ईश्वर, तू मुझे धन-दौलत भले ही मत देना, पर ऐसा दु:ख कभी न देना कि जिसके लिए पैसों की जरूरत आन पड़े। सचमुच हुआ भी यही, उनके जीवन में ऐसा मौका कभी नहीं आया। यहाँ तक कि उनकी मृत्य भी इस ढंग से हुई कि उपचार तक में एक पैसा भी परिवार का खर्च नहीं हआ।

शास्त्रीजी की मृत्यु के पश्चात् कुछ भी नहीं था अम्माँ के हाथ में पंजी के नाम पर। शास्त्रीजी की बात ही सदैव उसे याद आती। "चार-चार बेटे हैं अपने, वे ही तो हमारी पूँजी हैं।"

जाने क्यों? आज अम्माँ को बार-बार लग रहा था कि उदार मन वाले शास्त्रीजी के चार-चार बेटों के होते वह एक-एक पैसे को मोहताज आखिर क्यों है? अम्माँ सोच रही थी कि आखिर हम दोनों ने अपने बेटों के लिए जीवन भर तंगी झेली तो भला क्यों? शास्त्रीजी के जीवित रहते क्या मैं यूँ ही एक-एक पैसे को तरसती? प्रश्नों के इस ज्वार में अम्माँ उलझती जा रही थी और उसे अपना 'भागोंवाली' नाम जाने क्यों काट रहा था।

पहली बार अम्माँ को उस दिन बड़ा खराब लगा था, जिस दिन जयदीप को फीस देने के साथ ही बहू ने ताना भी मार दिया था।

तब ही अहसास हुआ था अम्माँ को कि शास्त्रीजी झूठ बोलते थे, कि औलाद पूँजी होती है।

और आज फिर, इसी बात का अहसास दुबारा हो रहा था अम्माँ को, कि शास्त्रीजी की वर्षों के कडे परिश्रम-मेहनत और खर्च करने के पश्चात् तैयार की गई यह पूँजी आज अपने काम नहीं आ रही है।

अपने पास तो कुछ भी नगद नहीं था अम्माँ के। हाँ, कुछ गहने थे जरूर, उसमें भी आधे गहने तो दोनों बहओं के लिए शादी के समय तुड़वाने पड़े थे अम्माँ को। बस आधे रह गए थे अब।

आज अम्माँ को महसूस हो रहा था कि उन्हें अपने लिए कुछ-न-कुछ बचाकर रखना चाहिए था। छोटी-छोटी रकम भी यदि बचाई होती, तो इस बुरे वक्त में काम आती, लेकिन पैसा बचता कहाँ से? इतना बड़ा परिवार और सभी बच्चे पढ़ने वाले। मकान पर ही इतना खर्चा हो गया था कि कुछ भी जमा-पूँजी पास नहीं रही अपने।

'कहीं दोनों भाई हाथ खड़ा कर दें तो?' सोचने लगी अम्माँ, 'मेरे ये सारे गहने बेचकर भी तो शादी का खर्च पूरा नहीं होगा।

'फिर? "फिर क्या होगा। इस तरह तो बेईज्जती हो जाएगी हमारी सारे समाज में। क्या सोचेंगे लोग हमारे बारे में। चार-चार कमाऊ लड़के हैं और शादी इतनी चुपचाप। अरे अंदर जैसा भी होगा, लेकिन बाहर दिखावा तो करना ही पड़ेगा न थोड़ा-बहुत। अपनी नहीं, स्वर्गवासी शास्त्रीजी की लाज बचाने के लिए कम-से-कम दो टाइम मुँह तो जूठा करवाना ही पड़ेगा मुहल्ले वालों, नाते-रिश्तेवालों और अपने-परायों को।

सोचते-सोचते अम्माँ विह्वल हो उठी। रातों की नींद और दिन का चैन खो गया अम्माँ का। अब वह बेसब्री से सुरेश और कुलदीप के आने की प्रतीक्षा करने लगी, ताकि तीनों भाइयों को एक साथ बिठाकर कुछ हल निकाल सके।

अम्माँ को फिर भी पूरा विश्वास था कि दोनों बड़े भाई किसी भी तरह इस कार्य को निबटा देंगे। समाज की शर्म और लाज भी कोई चीज होती है। जिम्मेदारी न समझें, लेकिन लोक-लाज की वजह से तो उन्हें आगे खड़ा होना ही पड़ेगा।

 

चौदह

दिन ज्यों-ज्यों गुजरते जा रहे थे, अम्माँ की चिंता और परेशानी भी निरंतर बढ़ती जा रही थी, अभी तक किसी भी भाई के ऊपर जिम्मेदारी नहीं दी गई थी। शादी में कौन कितना खर्चा देगा, यह तक तय नहीं किया गया था।

चार-चार भाई अलग-अलग काम करेंगे, तो कुल मिलाकर चार दिन में ही सारा काम निबटा देंगे। शादी के लिए केवल पंद्रह दिन शेष रह गए थे। अम्माँ के लिए यह सुकून की बात थी कि सुरेश और उसके बच्चे तथा कुलदीप छुट्टियाँ लेकर घर आ गए थे।

चलो, कोई बात नहीं, घर तो पहुँच गए। सबकुछ हो जाएगा अब तो, पैसा पास में चाहिए, तैयारी तो एक दिन में भी हो जाती है।

रश्मि तो अभी से घर जाने की इच्छुक नहीं थी। पंद्रह दिन तो ये शादी तक के हो गए। दो-चार दिन शादी के बाद भी रुकना पड़ा तो काफी दिन हो जाएँगे। छुटकी की भी इतनी गैरहाजिरी हो जाएगी स्कूल में। स्कूल का काम छूटता है तो फिर बच्चे पिछड़ते चले जाते हैं। इस बात को बड़े जोर-शोर से रखा था उसने सुरेश के सामने।

"सुनो जी, अभी से जाकर क्या करना है वहाँ पर। तीन-चार दिन पहले चलें चलेंगे।" रश्मि ने समझाते हुए कहा था।

"तुम कैसी बातें करती हो, अभी कुछ भी तैयारियाँ नहीं हैं वहाँ पर, शादी करना क्या मजाक लग रहा है तुम्हें?" सुरेश बोला।

"दूल्हे को भेज दो, तैयारी तो वह भी कर लेगा। इधर छुटकी की भी तो काफी गैरहाजिरी हो जाएगी।" रश्मि ने फिर दबाव दिया था।

"बात तो तुम्हारी ठीक है, लेकिन यह भी तो देखना पड़ेगा कि किसके सिर क्या जिम्मेदारी आती है?" सुरेश ने समझाया।

"तुम तो बस एक ही रट लगाए रहते हो, जिम्मेदारी-जिम्मेदारी। अरे हमने उसे अपने साथ रखा, छह महीने तक उसका खर्चा उठाया, उसकी नौकरी लगाई, क्या ये कम बडी जिम्मेदारी निभाई है हमने?" प्रतिरोध किया रश्मि ने।

"वह तो ठीक है, लेकिन पिताजी के देहांत के बाद तो बड़ा मैं ही हूँ न, इसलिए फर्ज मेरा भी तो बनता है।" सुरेश ने समझाने की कोशिश की।

"मैं तो पूछती हूँ कि सब फर्ज तुम्हारा ही बनता है या किसी और का भी कोई फर्ज है उस घर में?" लगभग चीखने वाले अंदाज में बोली थी रश्मि, "हम उस पर खर्चा भी करें, नौकरी भी लगाएँ और उसकी शादी का खर्चा भी हम ही करें। दूसरे क्या कर रहे हैं? मालूम है कुछ, ससुरजी के बनाए घर में मौज कर रहे हैं, न किसी का खर्चा उठाया, न किसी का फर्ज निभाया।"

'बात तो ठीक ही कह रही थी रश्मि,' सोचा सुरेश ने, 'दिनेश ने क्या किया है आज तक? न माँ का खर्चा उठाया और न छोटे का, उलटे आधे घर पर कब्जा मारकर ऐश कर रहा है। जब कभी हम जाते हैं, तो मेहमानों की तरह रहना पड़ता है एक कमरे में।'

पति को सोचता देख रश्मि ने एक और चोट की, "अरे तुम हो सीधे-सादे, इसीलिए सब तुम्हारा फायदा उठाते हैं। तुम्हारा भाई हो, चाहे तुम्हारी माँ हो।" लोहा गरम था, इसलिए चोट का असर भी हुआ।

अत्यंत नरम होकर बोला सुरेश, "तुम ठीक कहती हो, चलो इस बात का फैसला अब घर में ही होगा।"

पति को लाइन पर आया देख घर जाने को राजी हो गई रश्मि भी। जाना उसको भी जरूर पड़ेगा। चाहे कुछ भी हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि घर जाकर ये गोबर गणेश फिर उनकी मीठी-मीठी बातों में न आ जाए। इसलिए वह पंद्रह दिन पहले ही जाने को तैयार हो गई, क्या पता शादी से पहले ही मौका मिल जाए बातचीत का।

वे दूसरे दिन अंतरराज्यीय बस अड्डे पहुँच गए, जहाँ कुलदीप भी आ गया और वे घर पहुँच गए।

सायं को तीनों भाई माँ के पास बैठ गए. पत्नियाँ प्रत्यक्षतः तो सामने नहीं आईं, किंतु अपने-अपने कमरों से कान खड़े करके चर्चा को सुनने के लिए बेसब्र थीं।

बात शुरू की अम्माँ ने, "दो हफ्ते भी पूरे नहीं रह गए हैं अब, बताओ क्या-क्या होना है?"

दोनों बड़े भाई एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। कुलदीप ने रुपयों की पोटली माँ के हाथ में रखते हुए अपनी छुट्टी कर दी, "माँ, मैं तो बस साल भर में यही साठ हजार रुपए बचा पाया, ये तुम रख लो।"

"तू बता, सुरेश तेरे जिम्मे क्या रहेगा?" अम्माँ सुरेश से मुखातिब थी।

"माँ, मैं साल भर तक कुलदीप का खर्चा उठाता रहा, इसकी नौकरी लगवाई, अपने भी बच्चे पढ़नेवाले हैं, बचत कहाँ होती है।"

कुछ हद तक सही थी सुरेश की बात, सो अम्माँ उसे कुछ न बोलकर दिनेश से बोली, "तू बता, बेटा! क्या जिम्मेदारी लेगा।"

मैं क्या जिम्मेदारी लूँगा?" बोला दिनेश, "छोटी सी तो अपनी नौकरी है, अपने खर्चे अलग हैं, घर की देखरेख और मरम्मत में हर महीने कुछ-न-कुछ खर्च होता रहता है।"

अम्माँ स्तब्ध, कितनी बेशर्मी से मुकर गए दोनों। ये हैं शास्त्रीजी की पूँजी। आँसू छलक आए उसके। दिल का दर्द होंठों पर आ गया।

"अरे कमबख्तो, डूब मरो डूब! शर्म नहीं आती तुम्हें? अच्छा हआ शास्त्रीजी मर गए यह दिन देखने से पहले, वरना आज उन्हें अपने आप पर लज्जित होना पड़ता।"

अम्माँ को भावुक हुआ देखकर दोनों भाइयों ने नजरें झुका लीं। अलबत्ता अम्माँ बोलती रही।

"अरे, वे तो अपने बेटों को अपनी पूँजी समझते थे पूँजी। सारा जीवन खपा दिया उन्होंने इस पूँजी को सहेजने में। मर-खप गए वे इसी पूँजी के लिए, लेकिन क्या मिला उन्हें? धिक्कार है ऐसे कुपुत्रों पर। आज अगर वे जिंदा होते, तो क्या बीतती उनके हृदय पर?"

सुबकने लगी थी अम्माँ, अब खामोशी छा गई थी। काफी देर तक अम्माँ की सुबकियाँ ही बीच-बीच में इस खामोशी को तोड़ती रहीं। बहुएँ अपने-अपने कमरों में चुपचाप इस सब ड्रामे को सुनती रहीं।

दोनों भाइयों को कुछ शर्म महसूस हुई, तो आपस में ही एक-दूसरे से मुखातिब हुए।

"भैया, तुम क्या करोगे? तुम्हीं बताओ" शुरुआत दिनेश ने की।

"मैं क्या करूँगा?" क्या मैंने कम किया है इस घर के लिए? लेकिन तुम बताओ कि तुमने क्या किया अभी तक।" सुरेश ने उलटा प्रश्न दाग दिया था दिनेश पर।

"मैंने क्या किया? यह तुम मुझसे पूछ रहे हो? अरे खुद तो दिल्ली में रहते हो, यहाँ घर में कम जिम्मेदारी होती है क्या?" दिनेश ने अपनी बात रखी।

"कौन सी जिम्मेदारी? किस जिम्मेदारी की बात कर रहे हो? माँ और जयदीप का चूल्हा तुमने अलग कर दिया, क्या इसी जिम्मेदारी की बात कर रहे हो?" सुरेश ने पत्नी के शब्द अपने मुँह से बाहर निकाल दिए। "उलटे आधे घर में कब्जा करके आराम से रह रहे हो।"

अब दोनों भाई एक-दूसरे से उलझ गए थे। माँ व छोटा भाई अवाक् रह गए। कभी एक का तो कभी दूसरे का मुँह देखने लगे। अब रोना और सुबकना भूल गई थी माँ।

"अरे तुम इसे आराम कहते हो? तो ले लो अपना हिस्सा। घर में रहकर देखो। नातेदारी-रिश्तेदारी निभानी पड़ती है, न्योता-पत्रा देना पड़ता है अपने-परायों के सुख-दुःख में। यहाँ-वहाँ जाना होता है, इसमें कम खर्च होता है क्या? तुमने तो मुँह छिपा रखा है। एक बार घर में आ गए वर्ष भर में बस।" दिनेश भी कम नहीं था। अम्माँ को समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करे? किसका पक्ष लें और किसका नहीं? धर्मसंकट हो गया था उसके लिए।

कितना पाप भरा हुआ है इन लोगों के दिलों में? आज पता चला अम्माँ को, लेकिन यह भी ठीक ही हुआ कि पता चल गया समय रहते। कहीं बाद में यह विषय और ज्यादा उलझ जाता, तो बदनामी अलग से होती। घर का झगड़ा सड़कों पर न आए यही सबसे अच्छा है।

दोनों भाइयों में बहस बढ़ती देख कुलदीप बीच में आ गया।

"माँ रहने दो, मुझे नहीं करनी यह शादी। ऐसी शादी से क्या फायदा, जिससे घर में दीवारें खड़ी हो जाएँ?" कहकर एक झटके में उठकर कमरे से बाहर चला गया कुलदीप। कुलदीप के चले जाने के बाद तो ऐसा लगा कि दोनों भाइयों की बहस को ब्रेक लग गया हो जैसे, दोनों चुप हो गए। एक बार फिर कमरे में खामोशी छा गई।

 

पंद्रह

कलेजा छलनी हो आया था अम्माँ का, उसे आज पता चला कि भाइयों के दिलों में दीवारें खड़ी हो चुकी हैं।

कितनी दूरियाँ बढ़ गई हैं इनके बीच में। दिनेश ने पहले तो छोटे का खर्चा बंद किया और उसकी पत्नी ने चूल्हा अलग करने पर मजबूर कर दिया।

सुरेश ने छह-सात महीने साथ क्या रखा अपने छोटे भाई को, तो उसका बखान भी कर दिया। फिर उसकी पत्नी ने उसको बेदखल भी कर दिया। वाह, क्या अच्छा भाईचारा निभा रहे हैं ये लोग।

आज अपनी गलती पर अहसास हो रहा था अम्माँ को। क्यों जने होंगे ये चार-चार कुपूत? क्यों उठाई होगी इतनी पीड़ा? एक ही पैदा किया होता तो आज यह दिन तो न देखना पडता। पता नहीं कब से दिल भरे हुए थे इनके। यह तो कुलदीप की शादी के बहाने सारा गुबार बाहर आ गया इनका।

बरबस शास्त्रीजी की याद आ गई अम्माँ को, इन सबको पढ़ाने-लिखाने में कितनी मेहनत की थी उन्होंने। एक प्राइमरी स्कूल का अध्यापक होने के बावजूद भी उन्होंने कभी इनके लिए कमी नहीं होने दी। खुद कम खाया, लेकिन इनकी हर इच्छा पूर्ण की। अपने लिए एक जोड़ा कपड़ा नहीं बनाया, किंतु इनको हमेशा अच्छे कपड़े पहनने को दिए, लेकिन आज देखो, तो ये सबकुछ भूल गए हैं। अम्माँ को लग रहा था कि वह कहीं से भी, कैसे भी, एक बार अगर शास्त्रीजी आ जाएँ, तो अम्माँ उनसे पूछे, "क्यों जी, ऐसी ही होती है क्या औलाद? …यही हैं राम-लक्ष्मण का आदर्श चरित्र पढ़े हुए भाई? क्या हमने इनके लिए कभी कोई कमी छोड़ी थी, जो आज ये इतने खुदगर्ज और लालची बन गए हैं?" अम्माँ का दिल फटा जा रहा था...उसे यही अहसास खाए जा रहा था कि हमारे दिए संस्कार इन्होंने कब और कैसे भला दिए? हमसे कहाँ चूक हो गई, अम्माँ निरंतर रोए जा रही थी।

यह तो मालूम था अम्माँ को कि खर्चे को लेकर बड़े भाई लोग कन्नी काट रहे हैं, लेकिन यह मालूम नहीं था कि इनके दिलों की दीवारें इतनी ऊँची हो गई हैं इनके बीच में।

हे भगवान्! अब क्या होगा इस घर का, तू ही रक्षा करना, तू ही सुबुद्धि देना इनको। अम्माँ सुबकती रही, कलपती रही।

सिर पकड़ लिया था अम्माँ ने, कुलदीप तो उठकर चला गया था, दोनों भाई अब चुपचाप बैठे हुए थे। काफी देर तक कोई कुछ नहीं बोला। खामोशी छाई थी पूरी तरह। कोई बोले भी तो क्या बोले? कहाँ से बात शुरू हो किसी की समझ में नहीं आ रहा था। काफी देर बाद आखिर अम्माँ ने ही खामोशी तोड़ी।

"अब जाओ भी। मैं ही कुछ कर लूँगी, जैसे भी करूँ।" अम्माँ ने बोझिल स्वर में कहा, "अपना दाँत तोड़ें चाहे अपने को गिरवी रखू, शादी तो मुझे उसकी करनी ही है, जैसे तुम दोनों की है।"

"माँ, मैंने यह थोडी कहा था कि मैं कुछ नहीं करूँगा, पर मैंने जो किया है वही तो बताया न।" बड़े ने जैसे अपनी सफाई दी। "माँ, मैंने भी कोई गलत कहा? घर में रहनेवाले की कोई पूछ नहीं होती, घर की मरम्मत में ही कितना खर्च होता है? कभी ये टूट गया, तो कभी वो।" छोटे ने भी सफाई दी।

"तुममें से किसी ने भी गलत नहीं कहा है। मैं ही गलत थी, जो तुमसे आस लगाए बैठी थी।" रूंधे गले से बोली अम्माँ।

"माँ, पर मैंने ऐसा तो नहीं कहा कि मैं कुछ नहीं करूँगा।" छोटे ने फिर एक बार सफाई दी। दोनों ही जैसे अम्माँ की दृढ़ता के

आगे हथियार डालने लगे थे।

बात अब समझौते पर आ गई थी।

"जब किसी ने भी मना नहीं किया, तो फिर विवाद क्यों बन रहा है।" बड़ा बोला।

दोनों भाई रुककर फिर एक होते नजर आए।

"अच्छा, तुम्हीं बताओ किसको क्या करना है।" दोनों ने अम्माँ से परस्पर सहमति से कहा।

अब अम्माँ इनकी औकात समझ गई थी। इन पर कोई जिम्मेदारी देना गलत होगा। अब ये फिर झगड़ेंगे, एक कहेगा मेरा ज्यादा खर्च हुआ, दूसरा कहेगा मेरा ज्यादा हुआ।

फिर इनकी बीवियाँ भी बीच में पड़ेंगी। तब वे भी आपस में झगड़ेंगी, इधर-उधर से लोग सुनेंगे, मखौल बन जाएगा इस घर का।

सोचने लगी अम्माँ कि इनमें यह भाव कहाँ से आया? आज तक तो तेरा-मेरा कभी हुआ नहीं था। अभी तक तो कोई भी बात सामने नहीं आई थी। ये सब इनकी बीवियों की करतूतें हैं? कान भरती रहती हैं एक-दूसरे के। गुलाम बना दिया है इन्होंने इन बच्चों को, वरना मेरे बच्चे ऐसे तो कभी नहीं थे।

बचपन से ही कितना प्यार करते थे एक-दूसरे को, जान देने को तैयार रहते थे भाई एक-दूसरे के लिए, लेकिन आज देखो, कैसे एक-दूसरे की टाँगें खींच रहे हैं।

अभी तो तीसरे की नहीं आई, वह आएगी तो पता नहीं कैसी निकलेगी। बाहर से तो सब सुंदर दिखती हैं, पर अंदर किसके दिल में क्या है, कौन जाने। शुरुआत में तो सब ही अच्छी दिखती हैं और अच्छी लगती हैं, पर धीरे-धीरे वे अपना रंग दिखाना शुरू कर देती हैं। रोज-रोज कुछ-न-कुछ शिकायत और कुछ-न-कुछ शिकवा करना तो इनकी आदत बन गई है।

चलो छोड़ो, यह मुँह सामने का कार्य है, यह निबट जाए बस। फिर तो जो होगा, होता रहे। रही सबसे छोटे की बात, तो अभी वह भी नौकरी लग गया, जैसे-तैसे उसकी शादी भी हो ही जाएगी।

भगवान् खुश रखे सबको अपने बीवी-बच्चों के साथ, मेरा क्या है? कितने दिन जीयूँगी।

अम्माँ को गहरी सोच में पड़ा देख बड़ा एक बार फिर बोला, "माँ, बताओ तुम्हीं, कैसे होगा यह सब?"

गहरी सोच में पड़ गई अम्माँ, क्या कहे इनसे कि ऐसा रास्ता निकल जाए कि दोनों का बराबर-बराबर खर्चा हो, ताकि फिर विवाद न बनें। सबकुछ सोचने के बाद बीच का रास्ता निकाल लिया था अम्माँ ने। निश्चय कर लिया था कि अपने सारे गहने बेचकर अधिकतम खर्च उठा लेगी शादी का। इन्हीं में से बहू के लिए कुछ गहने बनाएगी बाकी खर्च कर लेगी, क्या करना है इनका अब।

"तुम तीनों आपस में तय कर लो कि प्रत्येक भाई कितना पैसा देगा, कुलदीप ने तो साठ हजार दे दिए, अब तुम दोनों आपस में बैठकर तय कर लो कि तुम दोनों बराबर-बराबर कितना दे सकते हो।" फैसला दोनों पर छोड़ दिया अम्माँ ने, "रहा बाकी का खर्चा तो मेरे पास जो जेवर हैं, उन्हें बेचकर पूरा कर लूँगी।"

प्रस्ताव दोनों को ही पसंद आ गया, सारी जिम्मेदारी अम्माँ ने अपने ऊपर ले ली थी। उन्हें तो बस बराबर-बराबर मिलाकर पैसे अम्माँ के पास देने थे। चलो झंझट खत्म। साठ हजार तो दुल्हे ने दे ही दिए, साठ-सत्तर हजार के जेवर भी होंगे ही अम्माँ के। बाकी और जो लगेंगे हम आपस में बराबर कर लेंगे।

"ठीक है अम्माँ, हमें मंजूर है।" कहकर दोनों खुशी-खुशी उठकर चले गए।

अम्माँ ने भी संतोष की साँस ली, चलो इज्जत बची। कुछ नहीं सही से तो कुछ ही सही, जितने भी देंगे, पर खुशी-खुशी देंगे। झगड़ेंगे तो नहीं आपस में, न किसी पर ज्यादा बोझ पड़ेगा, न किसी पर कम।

मामला सुलझ गया था, दोनों की पत्नियाँ भी चुपचाप रहीं। एक बार तो नौबत यह आ गई थी कि पत्नियों को ही बीच में पड़ना पड़ता, पर स्थिति टल गई थी।

दोनों के अपने-अपने तर्क थे, लेकिन एक-दूसरे के तर्क मानने को कोई तैयार नहीं था। हर कोई अपनी जिम्मेदारी को बड़ा गिना रहा था।

अंदर से तो दोनों की पत्नियों के दिल भी कटुता से भरे हुए थे। कोई भी अपनी गृहस्थी में सुखी महसूस नहीं कर रही थी। एक को लगता था कि दूसरी के ठाठ हैं, तो दूसरी को लगता कि पहली मौज मार रही है।

रश्मि की तरह ही साधना भी कई बार अपने पति को ताने मारती रहती थी। "अजी बड़े वालों को देखें, मौज कर रहे हैं दिल्ली में। मेरी किस्मत में तो हमेशा इस घर का झाड़-पोंछा ही लिखा है। साल भर में आएगी महारानी, लिपे-पुते घर में मेहमान बनकर।"

पर दिनेश कुछ न कहता। उसे मालूम था कि घर से बाहर और खासकर दिल्ली में रहनेवाले मध्यम आय के परिवारों की क्या दुर्दशा होती है। किस तरह से अपना गुजारा करते हैं वे, सीमित जगह में, सीमित पारिवारिक जरूरतों के साथ गुजारा करना पड़ता है। मकान का किराया, दूध का बिल, बिजली और पानी का बिल, हर चीज का भुगतान करना पड़ता है। यहाँ तक कि हवा तक मुफ्त नहीं मिलती वहाँ पर। कूलर और पंखों के जरिए हवा का भुगतान करना पड़ता है शहरों में।

अपने यहाँ कम-से-कम सब्जी और आग जलाने के लिए लकड़ियाँ तो मुफ्त में मिलती हैं। ताजा हवा है और स्वच्छ वातावरण है। बड़े शहरों में रहना तो सिर्फ दूर के ढोल के समान है, जो केवल दूसरे को ही अच्छे लगते हैं।

औरतों को कौन समझाए। इसलिए वह साधना की हर बात को मजाक में ही टाल देता।

 

सोलह

पहले तो दोनों भाई लड़ रहे थे, किंतु बराबर-बराबर की हिस्सेदारी के नाम पर दोनों में सुलह भी हो गई। सुलह क्या हो गई, इस बात ने दोनों में बीच की खाई को भी पाट दिया। दोनों अम्माँ के कमरे से बाहर आए तो चेहरे से तनाव की लकीरें गायब हो चुकी थीं। दोनों मन से हलका महसूस कर रहे थे।

दोनों ने एक-दूसरे को देखा और संतुष्टि का भाव महसूस किया एक-दूसरे के चेहरे पर। ऐसा लग रहा था जैसे कुछ हुआ ही न हो, कुछ देर पहले का तनाव भूल चुके थे दोनों।

अपने-अपने खर्चे बचाने के फेर में दोनों, दो से एक हो गए। "बताओ, कितना-कितना करना है?" बड़े ने छोटे से पूछा।

"मेरे पास तो ज्यादा नहीं हैं, कुल तीस-चालीस हजार ही होंगे सारे मिलाकर।" दिनेश ने अपनी बात रखी।

"तो मैं कौन सा धन्ना सेठ हूँ, मेरे पास तो इतने भी नहीं हैं।" सुरेश ने अपना रोना रोया।

"कितने हैं?" पूछा दिनेश ने। "बस, तीसेक पड़े होंगे।" बताया सुरेश ने।

"चलो, काफी है, तीस-तीस ही मिलाकर दे देते हैं।" बोला दिनेश।

"हाँ, काफी हैं, तीनों से कुल मिलाकर एक लाख बीस हजार तो हो ही गए और कितना लगेगा, तीस-चालीस हजार? वह अम्माँ देख लेगी।" सुरेश ने भी सहमति दे दी। चलो सस्ते में ही निबट गए, दोनों अपने-अपने मन में सोच रहे थे। कहीं अम्माँ ने सीधे-सीधे राशन, जेवर या कपड़ों की जिम्मेदारी थमा दी होती तो दोगुना खर्च होता। अच्छा ही हुआ, जो वे अकड़ गए, कम-से-कम सही और ठीक-ठाक समाधान तो निकला।

और सुबह-सुबह ही दोनों ने पैसे मिलाकर साठ हजार अम्माँ के हाथ में रख दिए।

"अम्माँ, ये साठ हजार हैं दोनों के मिलाकर।"

चुपचाप पैसे पकड़ लिये अम्माँ ने। इतनी ही उम्मीद भी थी उसे, भागते भूत की लँगोटी हाथ लगी।

कुलदीप को बुलाकर अम्माँ ने कहा, "कुलदीप, तू आज ही अपने मामाजी के पास जा और कल ही उन्हें बुलाकर यहाँ ले आ।"

कुलदीप के मामा का शादी-ब्याह और ऐसे समारोह के प्रबंध करने का अच्छा अनुभव था। पूरा अंदाज था उन्हें कि कितने बरातियों पर कितना चावल, कितनी दाल और कितनी सब्जी बनती है। लड़की पक्ष के साथ लेन-देन में कैसे और कितनी कटौती करनी होती है। वे माहिर खिलाड़ी थे इसके।

सिर्फ अपने ही परिवार के नहीं, वरन् अन्य लोग भी उन्हें अपने कार्यों में राय-मशविरे और देख-रेख के लिए बुलाते थे।

अम्माँ आश्वस्त थी कि भाई सबकुछ अच्छे से निभा देगा।

दूसरे ही दिन कुलदीप मामा को लेकर वापस आ भी गया। अम्माँ ने रूँधे गले से सारी कहानी अपने भैया को सुनाई। सुनकर भैया ने भी ढाढ़स बँधाया।

"कोई बात नहीं, बहिन, बड़े कामों में मतभेद होते रहते हैं। भगवान् की कृपा से सब इसी में पूरा हो जाएगा।" फिर एक-एक कर मामा ने जरूरी वस्तुओं की लिस्ट तैयार की। एक-एक चीज छोटी से लेकर बड़ी तक कुलदीप को सामने बिठाकर नोट कराई।

तीन-चार दिनों में ही मामाजी ने, दाल, चावल और अन्य राशन सहित जरूरी चीजें कुलदीप को साथ ले जाकर खरीद दी। बैंड बाजे, कैमरा आदि सब बुक कर लिये।

कपड़े, गहने इत्यादि लेने के लिए मामाजी दोनों बड़ों को भी अपने साथ बाजार ले गए। सारी खरीददारी पूरी कर ली गई थी। कार्ड तो पहले ही बँट गए थे। अब सिर्फ सब्जी लेनी बाकी थी, जो उसी दिन ताजा लेनी थी।

मामाजी के आने से दोनों बड़े भाइयों ने भी राहत की साँस ली। उनकी दौड-भाग जो बच गई थी। साथ ही उन्हें अभी ऐसे कार्यों का कुछ भी अनुभव नहीं था।

अम्माँ अब बिलकुल तनाव मुक्त थी, तीसरी बहू घर में आने की खुशी ने उसकी जीर्ण हो चुकी नसों में नया संचार कर दिया था। और दिनों की अपेक्षा अम्माँ आजकल अधिक स्वस्थ और फुरतीली नजर आ रही थी। होता भी है, खुशी ऐसी चीज है, जो व्यक्ति में नया जीवन संचार कर देती है।

दुःख था तो केवल इतना कि सबसे छोटा बेटा इस अवसर पर उनके साथ नहीं था, वह ट्रेनिंग पर था। आखिर शादी से बढ़कर उसके भविष्य का सवाल भी था। शादी में शरीक नहीं होगा, तो क्या हुआ? तीन-चार महीने बाद आकर भाभी से मिल लेगा।

आखिर शादी का दिन भी आ गया। घर में दूर-दराज से रिश्तेदार और मेहमान पहुँचना शुरू हो गए। धूमधाम से बरात लड़की वालों के घर गई और दुल्हन को विदा कर ले आई।

नई-नवेली दुल्हन को अपने घर में लाकर अम्माँ की खशी का ठिकाना न था। अब वह संतुष्ट थी।

कुलदीप भी प्रसन्न था, तीन-चार दिन घर में खूब रौनक रही धीरे-धीरे रिश्तेदारों और मेहमानों ने अपनी राह पकड़नी शुरू की।

मामा ने तीनों भाइयों और अम्माँ को साथ-साथ बैठाकर सारा हिसाब-किताब समझाया और बचा हुआ हिसाब सबके सामने रख दिया। उम्मीद से कम ही खर्च हुआ था शादी पर। सबकुछ पूरा हो गया था उसी में, बल्कि अम्माँ के जेवर भी बिकने से बच गए थे। हाँ, जितने जेवर तोड़कर नई बहू के लिए जेवर तैयार किए गए, उसके अतिरिक्त और जेवरों को बेचने की नौबत नहीं आई।

यह सबकुछ मामाजी के प्रबंध और अनुभव का ही कमाल था। सौ रुपए की चीज को कम करते-करते नब्बे रुपए तक लाकर ही हर चीज खरीदी थी मामाजी ने।

दोनों बड़ी बहुएँ भी खुश थीं कि बाकी जेवर नहीं बिके। उनको अम्माँ के उन बचे हुए जेवरों में अपना-अपना एक चौथाई हिस्सा जो दिखलाई दे रहा था। कितना और जीएगी बुढ़िया? मुश्किल से दो-तीन साल। जेवर बचे रहे, तो उनके ही हिस्से में आएँगे। जो कुछ हुआ, सब अच्छा ही हुआ।

मामा के विदा होने के पश्चात् अगले दिन सुरेश और उसके बच्चे भी दिल्ली चले गए। अब घर में दो बेटे और दो बहुएँ तथा एक नातिन रह गया था, किंतु सूनापन नहीं महसूस हुआ अम्माँ को।

सूनापन जरूर महसूस होता एक दो-दिन, किंतु नई बहू की आने की खुशी ने इसे पाट दिया था।

कुलदीप की तीन-चार दिन छुट्टियाँ और रह गई थीं।

अम्माँ चाहती थी कि कुलदीप भी अपनी बहू को इसी समय साथ ले जाए। उसी के अकेलेपन और खाने-पीने की सुविधा के लिए तो इतनी उतावली थी शादी की, लेकिन कुलदीप ने मना कर दिया था फिलहाल।

बहाना तो उसने कमरा ढूँढने का किया था, किंतु मन में तो यह था कि भले ही कुछ महीने ही सही, पर उसकी पत्नी माधुरी कुछ दिन तो सेवा करे माँ की।

उसकी इस भावना के पीछे कारण यह भी था कि वह अब तक कुछ नहीं कर पाया था माँ के लिए। माँ ही करती रही सबकुछ अब तक उनके लिए। अपने जीवन में हमेशा खपती रही उनके लिए।

खासकर पिता की मृत्यु के बाद तो अम्माँ ने बहुत ही कष्ट झेले हैं, बहुत बुरे दिन भी देखने पड़े उसे। माधुरी की सेवा के द्वारा यदि वह माँ को कुछ भी खुशी दे पाया, तो अपना धन्यभाग समझेगा। यह बात उसने माधुरी को भी भली-भाँति समझा दी थी। माधुरी भी इसके लिए तन और मन से राजी थी।

 

सत्रह

कुलदीप के चले जाने के बाद तो कुछ दिन तक माधुरी को बहुत खराब लगा। घर काटने को आता हो जैसे, लेकिन उसने अपने आपको घर के कामों और अम्माँ की सेवा में व्यस्त कर लिया था। दो ही प्राणी थे अब वे अपने चूल्हे में। समय निकालकर वह जेठानी के पास भी बैठ जाती और इधर-उधर की बातें होती और कभी-कभी छोटी को अपनी गोदी में उठाकर अपने पास ले आती।

कभी-कभी उसे जेठानी का स्वभाव कछ अजीब सा लगता। बात करते-करते वह हर बात का रुख अम्माँ की ओर मोड़ देती। माधुरी को ऐसा लगता मानो वह अम्माँ से जाने कितनी खार खाए बैठी हो, या फिर अम्माँ जेठानी के प्रति कितनी निर्दयी रही हो। सिर घूम जाता माधुरी का। उसने महसूस किया कि प्यार-ही-प्यार से वह अम्माँ के प्रति उसके दिल में नफरत के बीज बोने की कोशिश करती, किंतु माधुरी भी इतनी मूर्ख नहीं थी। उसके पति ने उसे पहले ही इस घर की सारी परिस्थितियों के बारे में खूब समझा दिया था।

अम्माँ को छोटी बहू का स्वभाव बहुत पसंद आया। सेवा, सादगी और सौम्यता की प्रतिमूर्ति थी वह। वह काफी कम बोलती थी। जितना भी बोलती, मीठा बोलती। हर समय अपने काम में लगी रहती, घर की साज-सज्जा से लेकर खाना बनाने और साफ-सफाई की खूब तहजीब थी उसको। कुल मिलाकर अच्छे संस्कार दिए थे उसके माता-पिता ने उसको।

उसे देखकर अम्माँ को बरबस अपने बीते दिनों की याद आ जाती। दो जेठ और दो देवर थे अम्माँ के परिवार में भी। उसकी भाँति अम्माँ ने भी खूब सेवा की थी अपने सास-ससुर की। फर्क तो सिर्फ इतना है कि अम्माँ की उम्र तब काफी कम थी, केवल पंद्रह वर्ष।

शास्त्रीजी शादी के एक माह बाद चले गए थे पहाड़ अपनी नौकरी पर। शुरू में तो बहुत ही उदास रहने लगी थी वह भी, लेकिन धीरे-धीरे घरेलू कामों में व्यस्त हो गई थी। गाय-भैंस दुहने से लेकर, गोबर निकालना, खाना बनाना, यह सब कार्य अपने जिम्मे ले लिया था उसने। खाना खाने के पश्चात् सासजी की सेवा में भी वह अपना समय रोज लगाती।

जेठानियों को उसके आने से काफी राहत मिली, तो देवरों को भी खुशी हुई।

इस तरह पूरे तीन वर्ष रही वह ससुराल में, फिर शास्त्रीजी आकर ले आए थे उसे अपने साथ यहाँ पहाड़ में। ले क्या आए थे सासजी ने ही जबरन भेजा था उसे शास्त्रीजी के साथ। घर से दूर थे शास्त्रीजी, इसलिए सास बार-बार उनकी ही रटन लगाए रहती थी।

जब से वह शास्त्रीजी के साथ आई थी, तब से वह वर्ष में यदा-कदा ही फिर ससुराल गई सुख में, दु:ख में, शादी-विवाह या फिर पूजा इत्यादि में।

धीरे-धीरे यहीं पहाड़ की माटी में रच-बस गई। अब यहीं अपना घर-बार हो गया। ससुराल की स्मृतियाँ तो केवल अंतस की गहराइयों में रह गईं।

दो साल पहले गई थी शास्त्रीजी के साथ, जब सासजी की मृत्यु हुई थी। ससुरजी तो पहले ही स्वर्ग सिधार गए थे।

बस, तब से अभी तक दुबारा जाने का मौका भी नहीं मिला। अब तो शायद मौका लगेगा भी नहीं। शास्त्रीजी होते तो शायद जाने का संयोग भी बनता, किंतु अब किसके साथ जाएगी और किस मतलब से जाएगी? अब तो वहाँ का भी माहौल बदल गया होगा, परिवार अलग-अलग हो गए होंगे। सबकी अपनी-अपनी गहस्थी हो गई होगी, क्या पता वहाँ पर हमारा हिस्सा हो भी या नहीं।

अतीत की गहराइयों से उबर आती अम्माँ, फिर सोचती आगे की जली लकड़ी पीछे ही आती है।

एक दिन बहू भी चली जाएगी बेटे के साथ, ठीक उसी तरह जैसे वह चली आई थी शास्त्रीजी के साथ।

आज नहीं तो कल, कभी-न-कभी तो जाना ही पड़ेगा उसे भी। मेरा क्या है, जी लूँगी कैसे भी, लेकिन बेटे का सुख ज्यादा बड़ा है मेरे जीवन से। उसे दो रोटी पकी मिलेंगी, तो मुझे संतुष्टि ही मिलेगी।

हाँ! भगवान् ने सुख रखा तो एक आध साल के अंदर-अंदर चौथी बहू भी ले आऊँगी। बेटा फौजी है, देखने में सुंदर है, भला उसके लिए लड़कियों की क्या कमी होगी। वह हामी भर दे तो उसका रिश्ता तय करने में कोई समय नहीं लगेगा। मन में अब यही तमन्ना शेष रह गई कि किसी तरह उसकी भी गृहस्थी बस जाए। ऐसा हो जाए तो वह शांतिपूर्वक मर सकेगी, तब और कोई इच्छा नहीं रहेगी उसके मन में।

माधुरी अम्माँ को खूब सुख दे रही थी। समय पर खाना दे देती, रोज कपड़े बदलवा देती, रात्रि को हाथ-पैर भी दबा देती। अब अपने शरीर में कुछ और ताकत महसूस हो रही थी अम्माँ को।

जेठ के परिवार के साथ भी बहू ने सब्जी का आदान-प्रदान शुरू कर दिया था। इस तरह से दो-दो कटोरियाँ खाने की थाली में लग जातीं।

जेठानी के साथ अब तक तो उसका तालमेल ठीक ही चल रहा था, पर कभी-कभार माधुरी को लगता था कि जब वह सास की सेवा करती है, उन्हें नहलाती, कपड़े बदलवाती है, तो जेठानी अंदर-ही-अंदर कुढ़ती हैं।

माधुरी उसकी आँखों में उस कुढ़न को साफ महसूस करती, लेकिन उस सबकी चिंता किए बगैर वह अपना काम पूरा करती रहती।

इन कुछ ही दिनों में कुलदीप ने उसे घर की हर वस्तुस्थिति से अवगत करा दिया था। बता दिया था कि दोनों भाइयों के बीच किस तरह से भाइयों का बँटवारा हुआ, फिर किस तरह से छोटी भाभी ने घर का बँटवारा कर दिया और दो चूल्हे कर दिए थे।

अम्माँ ने पिताजी की मृत्यु के बाद कितने कष्ट उठाए और छोटे भाई ने कितना संघर्ष किया। अपनी पढ़ाई से लेकर नौकरी लगने तक यह सब उसने अपनी पत्नी को बता दिया था।

यह भी बताया कि वह तब खुद बेरोजगार था, इसलिए छोटे की कोई मदद नहीं कर सका था। जब मदद करने लायक हुआ तो उसे मदद की जरूरत नहीं रही, क्योंकि वह खुद सेना में भरती हो गया था।

सारा किस्सा सुनकर माधुरी ने अपने मन-मस्तिष्क को पूरी तरह तैयार कर दिया था कि वह जितने भी दिन वहाँ रहेगी, तो सबके साथ अच्छे से रहेगी, लेकिन अपने अंदर की बात माधुरी ने कभी जेठानी पर जाहिर नहीं होने दी। वह हरसंभव उसको खुश रखने का प्रयास करती।

कुछ ही दिनों में माधुरी ने इस घर की हर छोटी-बड़ी चीज को अपने में आत्मसात् कर दिया था। फिलहाल उसने सबकी नजरों में अपने लिए अच्छा स्थान बना लिया था। वह सबको देख-मिल चुकी थी, किंतु सिर्फ फौजी देवर से मिलना शेष था। ट्रेनिंग के कारण वह शादी में भी नहीं आ पाया था। उस देवर को देखने को वह बडी उत्सुक थी।

कुलदीप की भी उसे बहुत याद आती। पत्रों के माध्यम से ही कुशल खबर मिलती, हालाँकि बस्ती में अब एस.टी.डी. बूथ भी खुल गया था, लेकिन वहाँ जाकर बात करने में उसे शर्म आती थी। एक-दो बार वह गई जरूर थी, जब अम्माँ ने जबरदस्ती की थी। काफी दिन से पत्र नहीं आया था कुलदीप का, तो अम्माँ ने जबरदस्ती उसके ऑफिस का नंबर देकर बात करके कुशल पूछने को भेजा था। कुलदीप से बात करने के लिए उसे पहले दो अन्य लोगों से बात करनी पड़ी थी, तब जाकर कुलदीप को बुलाया था उन्होंने फोन पर। बहुत शर्म आई थी उसे उन लोगों से बात करते हुए। उन दोनों में से एक तो बहुत बदतमीज लगा था उसे, जब उसने बताया कि मैं कुलदीप की पत्नी हूँ, तो छूटते ही बोला, "भाभीजी, कब आओगी यहाँ। आपके हाथ के गरमागरम पकौड़े खाने हैं।"

गुस्सा तो बहुत आया था उसे, पर चुप रही थी। जब कुलदीप फोन पर आया तो उसकी शिकायत की थी उसने, तब कुलदीप ने ही बताया था कि वह उसका खास दोस्त है और हमारी शादी में भी आया था। तब जाकर गुस्सा शांत हुआ था माधुरी का।

उसके बाद उसकी एक या दो बार बमुश्किल बात हुई थी कुलदीप से। वह भी बहुत संक्षिप्त सी। उसे समझ में नहीं आता कि वह क्या बात करे। उधर से कुलदीप ही बात करता, वह तो बस, 'हाँ-ना' में ही जवाब देती। मन तो बहुत बातें करने का होता है, किंतु कर नहीं पाती, शर्म आती है उसे। टेलीफोन पर उसने यहीं आकर पहली बार बात करने का अनुभव लिया था।

समय बड़ी तेजी से दौड़ रहा था। ठीक तीन महीने हो गए थे उसका विवाह हुए। एक दिन कुलदीप का खत आया तो वह खुशी के मारे झूम उठी।

लिखा था कि वह अगले बुधवार को घर आएगा। उसी दिन अपना फौजी रंगरूटी भी छुट्टी पर आएगा। पत्र को चूम लिया था माधुरी ने और लगभग दौड़ते हुए ही अम्माँ के पास पहुंची थी।

अम्माँ कुछ पूछती उससे पहले ही उसने चिट्ठी अम्माँ के हाथ में पकड़ा दी। पढ़ना जानती थी अम्माँ, उस जमाने की दूसरा दरजा पास थी। शास्त्रीजी के साथ रहकर तो उसने थोड़ी-बहुत अंग्रेजी भी सीख ली थी।

"मेरी प्रिय प्राण प्यारी.." पहली लाइन पढते ही अम्माँ ने पत्र वापस उसके हाथ में दे दिया।

"पगली, तेरे लिए लिखी है यह तो।" अम्माँ बोली।

शरमा गई थी वह। वह खुशी के मारे भूल गई थी कि कागज के इस तरफ तो उसके लिए ही चिट्ठी लिखी थी कुलदीप ने। दूसरी तरफ माँ के लिए थी, फिर उसने पन्ना दूसरी तरफ पलटकर माँ को थमा दी चिट्ठी, पढ़कर अम्माँ की आँखों में आँसू छलक आए, खुशी के आँसू।

विवाह के समय भाइयों की स्वार्थपरता और लालच देखकर अम्माँ के दिल में जो गहरी चोट लगी थी, वह भी धीरे-धीरे माधुरी के प्रेमपूर्ण व्यवहार और सम्मान के कारण भरने लगी थी। अम्माँ कभी-कभी सोचती थी, 'विवाह से पहले जो भाई आपस में प्रेम की डोर से बँधे, एक-दूसरे के लिए जान की बाजी तक लगाने को तैयार रहते हैं, वे ही विवाह के बाद 'तेरे-मेरे' के चक्कर में आखिर क्यों पड़ जाते हैं? क्या पत्नियों का प्रभाव ऐसा होता है कि आदमी अपना विवेक ही खो देता है?...' अम्माँ इन दिनों बड़ी बहू रश्मि और उसकी सेवा में निरंतर लगी रहनेवाली बहू माधुरी की तुलना मन-ही-मन करती थी, तो अनायास माधुरी के प्रति अम्माँ का हृदय आशीषों से भर उठता था।

 

अठारह

आखिर बीस दिन की छुट्टी पर घर पहुँच गया था फौजी जयदीप। आते ही अम्माँ के चरण स्पर्श किए। अम्माँ ने भी उसे सीने से लगा लिया। फिर बड़ी भाभी के पैर छुए और उसके बाद छोटी भाभी के।

छोटी ठुमक-ठुमक चलते हुए पास पहुँच गई थी उसके। जयदीप ने तुरंत उसे गोदी में उठा लिया।

वेशभूषा एकदम बदली हुई लग रही थी जयदीप की। छोटे-छोटे बाल, छोटे क्या, लगभग गंजा जैसा सिर और काला पड़ चुका चेहरा। देखकर तो अम्माँ के आँसू ही निकल आए।

"अरे, तू तो इतना कमजोर क्यों हो गया? आधा भी नहीं रह गया।" उसके सिर पर हाथ फेरते हुए अम्माँ ने पूछ लिया।

मुसकरा भर दिया था वह। अम्माँ को क्या बताए कि ट्रेनिंग के दौरान कितनी मेहनत करनी पड़ती है, कितना परिश्रम करना पड़ता है? तब जाकर तैयार होता है एक जवान।

माधुरी ने जैसा उसके बारे में सुना था, बिलकुल, वैसा ही था वह।

सबके लिए कुछ-न-कुछ लाया था वह। आते हुए ही कोटद्वार में खरीददारी की थी उसने। वहाँ तो कभी भी बाजार जाने या खरीददारी करने का मौका नहीं मिलता था। नई भाभी के लिए वह क्या खरीदेगा। इस पर उसके दिल में काफी कशमकश चलती रही। पूरी दुकान के सामान को टटोल दिया था उसकी नजरों ने, लेकिन कुछ भी पसंद नहीं आया था उसे।

फिर दूसरी दुकान में जाकर नजर मारी थी उसने, तो उसे मोतियों का एक हार पसंद आ गया था। पूरा सेट था, हाथ गले और कानों तक का। कीमत कुछ ज्यादा थी, किंतु एक सेकेंड भी नहीं लगाया था उसने पैसा चुकाने में। फिर दुकानदार से उसकी गिफ्ट पैकिंग करने को कह दिया था।

गिफ्ट भाभी के हाथों में रखते हुए उसने कहा, "भाभीजी! यह छोटी सी भेंट आपके लिए।"

"मुझे नहीं चाहिए, मैं तो नाराज हूँ आपसे।" नकली गुस्सा दिखाते हुए बोली थी माधुरी।

"क्यों?" पूछा उसने।

"आप शादी में क्यों नहीं आए?" पूछा भाभी ने।

"अच्छा, यह बात है, अरे अब तो आ गया हूँ न। आने दो भैया को, दबारा शादी करवा देता हूँ।" उसने मजाक किया तो हँस पड़ी माधुरी। सायं को कुलदीप भी आ पहुँचा था, साथ ही बड़े भैया भी घर आ चुके थे ड्यूटी से।

प्यार से मिले तीनों भाई।

बक्सा खोलकर उसमें एक रम की बोतल निकालकर उसने बड़े भाई के हाथ में थमा दी, "भैया ये आपके लिए।"

"अरे वाह!" आँखें चमक गई थीं बोतल देखकर दिनेश की। पीने की आदत तो नहीं थी उसकी, किंतु कभी-कभार दवाई के रूप में एक-आधा पैग ले लेता था वह। फौज की रम पाकर तो उसके मुँह में पानी आ गया था। फिर शुरू हुआ बातों का सिलसिला। एक सिरे से उसने भाई की शादी और बरात की पूरी जानकारी ली।

सायं को खाते समय अम्माँ ने उससे पूछा, "अब तेरी पोस्टिंग हो जाएगी?"

"हाँ माँ! पहले सेंटर में हाजिरी देनी है, फिर पोस्टिंग मिलेगी।"

बताया उसने।

"कहाँ?'' अम्माँ ने पूछा। "अभी यह मालूम नहीं, जाकर ही पता चलेगा।" कहा उसने।

"अच्छा, मेरी लगभग सभी जिम्मेदारी पूरी हो गई हैं। मैं चाहती हूँ कि अब तेरा भी घर बस जाए।" अम्माँ ने वही बात दुहरा दी जो सब माँ कहती हैं। "अरे माँ, अभी तो दूर रखो मुझे इस जंजाल से।" हँस पड़ा था वह।

"अच्छा, तो घर बसाना जंजाल लगता है आपको।" भाभी बोल पड़ी थी।

"और नहीं तो क्या? फौजी आदमी के लिए तो जंजाल ही है।" जयदीप हँसकर बोला अपनी भाभी से।

"लेकिन एक-न-एक दिन तो सबको ही फंसना पड़ता है इस जंजाल में।" अबकी बार जयदीप बोला।

"ठीक ही तो कह रहा है कुलदीप। अब मेरा क्या है, मैं भी कितना जीऊँगी, न जाने कब बुलावा आ जाए। मेरी नजरों के सामने तेरी बहू भी इस घर में आ जाती, तो चैन से मर जाती मैं।" अम्माँ ने अपना दु:खड़ा रोया।

"अरे अम्माँ, अभी तो बहुत जीना है तुम्हें, अभी से कहाँ ऐसी बातें सोच रही हो। नाती-नातिनों की शादी भी तो करनी है अभी तुम्हें।" जयदीप ने माँ की बात को काटा।

"अरे बेटा, ऐसा भाग्य मेरा कहाँ।" अम्माँ दु:खी हो गई थी। अम्माँ को दु:खी देख फिर बात बदल दी जयदीप ने।

"भैया, छुटकी कितनी बड़ी हो गई, गए थे क्या आप बड़े भैया के पास।"

"हाँ गया था, वह तो बहुत तेज हो गई, पहली कक्षा में पहुँच गई। अब तो छोटा भी चलने लगा है।" बताया कुलदीप ने।

"अच्छा! अबकी बार जाते हुए मिलूँगा उन्हें।" जयदीप बोला।

"कुलदीप, तू अपने लिए कमरे का प्रबंध कर आया है न?" पूछा अम्माँ ने।

"कमरा है तो मेरे पास।" कुलदीप बोला।

"नहीं, मेरा मतलब है कि दूसरा कमरा देख लिया तूने अपने लिए, इस बार बहू को साथ लेकर जाएगा तू।" माँ बोली।

"नहीं माँ, अभी नहीं, अभी रहने दो माधुरी को कुछ दिन यहाँ, तुम्हें थोडा सहारा मिलेगा।"

"नहीं-नहीं, मेरी चिंता मत कर तू, मेरे सहारे के लिए बड़ी बहू तो है यहाँ।" बोल तो उठी अम्माँ, लेकिन जानती थी कि बड़ी बहू कैसा सहारा देगी। पिछले डेढ़-दो सालों से तो देख रही थी वह।

"माँ, इतनी जल्दी नहीं है मुझे।" कुलदीप ने फिर कहा।

"तुझे नहीं तो मुझे तो है। मुझसे तेरा दुःख नहीं देखा जाता। अरे बहू रहेगी साथ में तो खाने-पीने का समय तो मिल पाएगा ढंग से। मेरे तो अभी हाथ-पैर हैं, कर लूँगी जैसे भी। जिस दिन नहीं चलेंगे, देख लँगी उस दिन।" अम्माँ अपनी बात पर जोर देकर बोली।

"ठीक है, इस बार अकेले जाने दो फिर कमरा ढूँढकर आ जाऊँगा दुबारा इसे लेने।" बात को जैसे टाल दिया था कुलदीप ने, लेकिन अम्माँ मानी नहीं।

"तू ऐसा कर इसी दौरान कमरा तलाश कर ले, जब यह जयदीप ड्यूटी जाएगा तो तेरी बहू को दिल्ली छोड़ देगा।" माँ टलने वाली नहीं थी।

"हाँ भैया, माँ कह रही हैं तो देख लो, ठीक ही रहेगा। अपने से ज्यादा चिंता तो माँ को तुम्हारी है।" जयदीप ने भी माँ की बात का समर्थन किया।

तीन दिन बाद लौट गया कुलदीप और कमरे की तलाश शुरू कर दी उसने। बीस दिन की छुट्टियाँ कैसे कट गईं मालूम ही नहीं पड़ा जयदीप को।

इन छुट्टियों में जयदीप ने महसूस किया कि बड़ी भाभी का व्यवहार और भी रूखा हो गया था माँ और उसके प्रति। एक दिन तो वह छोटे को उँगली पकड़कर बाजार तक क्या ले गया, आसमान सिर पर उठा लिया था उसने।

जयदीप ने इस दौरान माँ के कहने पर कुलदीप को फोन कर पूछा, तो पता चला कि उसे कमरा मिल गया था।

बहू के लाख कहने पर भी अम्माँ मानी नहीं और जयदीप के साथ दिल्ली जाने के लिए तैयार कर ही दिया उसे।

भारी मन से ही माधुरी ने विदाई ली थी अम्माँ से और जयदीप भी दु:खी मन से लौट रहा था।

जाने से पहले वह भैया-भाभी के पास गया था मिलने। जिस भाभी की एक-एक नब्ज को वह देख-परख चुका था, फिर भी उसी के आगे लाचार हो गया था वह।

"भाभीजी, माँ की देखभाल करती रहना, आपका ही सहारा है मुझे।" आग्रह किया था उसने।

"देवरजी, देखभाल तो हम कर लेंगे, लेकिन खर्चे के लिए पैसे भेजते रहना। हम भी गृहस्थी वाले हैं। अपना ही खर्च पूरा नहीं पड़ता।" कहने से न चूकी थीं भाभी।

मन वितृष्णा से भर गया उसका। भैया भी सामने खड़े थे, लेकिन वे पत्नी की बात पर कुछ नहीं बोले। कितना स्वार्थी हो गया था यह भाई भी? पत्नी के आगे चुप था। जिस माँ ने छह-छह बच्चों को पाला-पोसा, उसको ही पालने के लिए खर्चे की कमी पड़ रही थी इनके पास।

सेना की नौकरी में एक सैनिक के आगे अनेक मजबूरियाँ होती हैं। माँ-बाप, भाई-बहिन और घर-परिवार से पहले उसके सामने राष्ट्रधर्म होता है। यही तो उन्हें ट्रेनिंग के दौरान भी सिखाया जाता है।

जयदीप सोच रहा था यदि उसकी नौकरी फौज की नहीं होती तो आज ही अम्माँ को अपने साथ ले जाता, लेकिन मजबूरी थी। अभी तो उसे यही पता नहीं था कि उसकी पहली पोस्टिंग कहाँ होनेवाली थी। अम्माँ ने खुशी-खुशी विदा किया दोनों को। जयदीप के सिर पर हाथ फेरते हुए आँखें नम हो आई थीं उसकी, लेकिन आँखों से बाहर नहीं आने दिया उसने अपने आँसुओं को।

माधुरी ने भी भरे मन से अम्माँ के पैर छए। "अम्माँ. अपना ध्यान रखना।" इतना भर बोल पाई थी वह।

"ठीक है बहू, तू मेरी चिंता न कर, कुलदीप का ध्यान ढंग से रखना।" अम्माँ ने भी छोटा सा जवाब दिया।

 

उन्नीस

चार माह के इस छोटे से अंतराल में ढेर सारे सुख दे गई थी छोटी बहू माधुरी अम्माँ को। अम्माँ ने खुद ही जबरदस्ती की थी बेटे से, वरना वह कहाँ साथ ले जा रहा था बहू को।

माधुरी का भी मन नहीं था जाने का, वह तो चाहती थी कि अभी एक आधा साल रहे घर पर। अम्माँ की सेवा भी हो जाएगी और कुलदीप भी धीरे-धीरे गृहस्थी की वस्तुएँ जोड़ लेगा।

इन चार महीनों में एक नया जीवन सा मिल गया था अम्माँ को। सेवा-सुश्रुषा और समयबद्ध भोजन ने कुछ ताकत भर दी थी अम्माँ के अंदर। उसे खुद महसूस हो रहा था कि अब वह पहले से ज्यादा स्वस्थ है। जीवन को लंबे समय तक जीने की चाह हर इनसान में होती है। यही अम्माँ के अंदर भी थी। वह भी अभी और जीना चाहती थी।

अम्माँ का खाना-पीना, सोना, नहाना-धोना, कितना व्यवस्थित हो गया था तब, लेकिन बहू के जाते ही फिर अम्माँ की वही पुरानी वाली स्थिति हो गई थी।

अकेली एक प्राण थी वह, सुबह नाश्ता बना लिया तो बस दिनभर ऐसा ही चलता। सुबह कुछ नहीं खाया तो दिन में बना लिया। वही दिन का बना हुआ फिर रात को गरम करके खा लिया, बस।

बड़ी बहू झाँकने तक को नहीं आती इधर की ओर। कभी छोटा आ भी जाता, तो उसे भी डपटकर बुला लेती। बेटा सुबह ड्यूटी पर निकलता तो फिर शाम को ही लौटता। घर में क्या चल रहा है, उसे कुछ भी पता नहीं चलता।

आते-जाते बस कभी तबीयत का हाल पूछ लेता, "माँ, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?"

"हाँ, ठीक है बेटा।" अम्माँ भी कह देती।

"कोई दिक्कत होगी तो साधना को बता देना।" वह जाते-जाते कहता।

हाँ, बता दूंगी।" अम्माँ उसे आश्वस्त करती। मन-ही-मन सोचती अम्माँ, तुझे क्या मालूम बेटा कि दिक्कत तो तेरी ही बहू को मुझसे ज्यादा है।

मन की बात कभी भी जुबान पर नहीं लाती अम्माँ, कभी भी बहू की शिकायत बेटे से नहीं की। सब ठीक-ठाक चल रहा है, ऐसा ही जतलाया हमेशा उसने।

शिकायत करके फायदा भी क्या था? कितने दिन रहेगी वह? आखिर बेटे को पत्नी के साथ ही तो अपना जीवन काटना था। मेरी वजह से उनकी गृहस्थी में कोई अनबन हो, तो क्या फायदा।

अम्माँ जानती थी कि पुरुष के सामने हमेशा एक द्विविध बनी रहती है। एक तरफ माँ और दूसरी तरफ पत्नी। दोनों जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग। कई बार तो दोनों के झगड़े में उसे दो पाटों के बीच गेहूँ के समान पिसना पडता है। इसलिए वह बेटे को किसी भी प्रकार का तनाव नहीं देना चाहती थी।

धीरे-धीरे अम्माँ का शरीर जवाब देने लगा। देह रुग्ण होती चली गई, अब एक पानी का लोटा भी बमुश्किल उठता उससे। इसी के चलते खाना खाने-पीने का क्रम भी बिगड़ता चला गया, तो शरीर में कई रोग घर करते चले गए।

जयदीप की चिट्ठी आ गई थी जाने के तुरंत बाद ही। उसे दूर कहीं सीमा पर तैनाती मिली थी। वह बराबर चिट्टियाँ भेजता रहता, लेकिन माँ ने अपनी बीमारी की बात हमेशा उससे छुपाए रखी। आखिर उसको बताकर मिलता भी क्या? सिर्फ उसको ही दु:ख और तनाव मिलता। इतनी दूर से वह कर भी क्या सकता था? ज्यादा-से-ज्यादा इलाज के लिए पैसा ही भेज सकता था, जो कि वह हर महीने भेज ही रहा था।

नौकरी पर जाते ही जयदीप ने हर महीने माँ की देखरेख के लिए एक हजार रुपए की धनराशि भेजनी शुरू कर दी थी, लेकिन यह पैसा भाभी के नाम से भेजा करता।

जयदीप ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जो रुपए वह अम्माँ के लिए भाभी के नाम हर महीने भेजता है, वे अम्माँ को तो मिलते ही नहीं? स्वार्थपरता और लालच की भी हद होती है, लेकिन जाने बह किस मिट्टी की बनी थी कि उसे इस बात की शर्म तक नहीं थी कि देवर जयदीप जो रुपए अम्माँ के लिए भेज रहा है? वे तो उन्हें दे दे?

तीन-चार माह बीत जाने के बाद भी बहू ने जयदीप द्वारा भेजे रुपयों में से चार पैसे भी अम्माँ पर खर्च नहीं किए।

अम्माँ को कभी कमर दर्द तो कभी हाथ-पैरों के जोड़ों में दर्द की शिकायत काफी बढ़ गई थी। इसको बुढ़ापा की नियति मानकर बेचारी अम्माँ चुपचाप दर्द सहने को मजबूर थी।

दर्द धीरे-धीरे इतना बढ़ने लगा कि अब अम्माँ का बिस्तर से उठना और चलना-फिरना भी कठिन सा हो गया।

अम्माँ की बिगड़ती हालत देखकर अब बहू ने थोड़ा सा उधर ध्यान देना शुरू किया। बेमन से ही सही, वह दिन में खाने की थाली अम्माँ के सामने रख जाती। खाने का मन तो नहीं होता, पर मन मारकर अम्माँ दो कौर किसी तरह पेट में डाल ही लेती। वही बचा-खुचा फिर शाम को भी खा लेती।

अम्माँ की लगातार गिरती हुई सेहत देखकर दिनेश एक दिन अम्माँ को हॉस्पिटल ले ही गया।

सारी जाँच करने के बाद डॉक्टर ने बताया कि अम्माँ को किडनी की समस्या के साथ पथरी भी थी। कुछ दवाइयाँ लिखकर डॉक्टर ने उन्हें हर सप्ताह हॉस्पिटल लाकर चैक करवाने की सलाह दो।

अब तो सचमुच जिम्मेदारी आन पड़ी थी दिनेश पर। बिना इलाज के मरने भी तो नहीं दे सकता था वह अम्माँ को। आखिर उसका दूध पिया है उसने, नौ माह कोख में रहा है वह अम्माँ की।

अब उसे हर सप्ताह अम्माँ को स्कूटर के पीछे बिठाकर हॉस्पिटल ले जाना पड़ता। हॉस्पिटल की भीड़ और ऊपर से अशक्त और बीमार अम्माँ, किसी तरह से डॉक्टर के पास दिखाना और फिर घर वापस लाना।

एक महीने तक तो ऐसा ही चलता रहा, लेकिन अब साधना रोज के इस झंझट से आजिज आ गई थी। एक दिन पति पर उबल पड़ी, "चार-चार भाइयों के होते केवल हम ही यह जिम्मेदारी उठा रहे हैं, बाकी लोग तो अपनी गृहस्थी में मस्त हैं। क्या हमने ही ठेका ले रखा है?"

"ऐसा नहीं है साधना, घर में हम ही हैं तो कौन देख-रेख करेगा अम्माँ की," दिनेश ने तर्क दिया, "और फिर जयदीप तो हर महीने हजार रुपए भेजता है हमें अम्माँ की देख-रेख के लिए।"

"अरे, हजार रुपए में क्या होता है आजकल, वह तो एक हफ्ते की दवाई में ही खर्च हो जाते हैं। हजार-हजार रुपए सभी भेजते तो कोई बात थी।" उत्तेजित स्वर में साधना बोली।

साधना की बात काफी हद तक सही लगी दिनेश को। आखिर माँ तो सबकी है। देख-रेख और खर्चे की जिम्मेदारी अन्य दो भाइयों को भी लेनी चाहिए।

उसे चुप देख साधना फिर बोली, "अजी, मैं तो कहती हूँ कि सब भाइयों को बुलाओ अपने, इस बात का फैसला कर लो, जितनी जल्दी हो सके।" बात हो गई, किंतु बात पर अमल नहीं हो पाया। दो हफ्ते ऐसे गुजर गए। अब साधना ने दिनेश पर रोज-रोज दबाव बनाना शुरू कर दिया।

घर की कलह से पीछा छुड़ाने हेतु उसने तीनों भाइयों को पत्र लिखकर घर बुलवा लिया, "माँ की तबीयत ठीक नहीं है, तुम लोग एक बार घर आ जाओ।"

माँ की बीमारी का समाचार सुनकर दिल्ली से दोनों भाई घर पहुँच गए, लेकिन छोटा नहीं आ पाया था। मालूम नहीं कि उसे चिट्ठी मिली भी या नहीं, यदि चिट्ठी मिली भी हो, तो छुट्टी मिली या नहीं।

दोनों भाइयों को पास बिठाकर दिनेश बोला, "साधना को घर-परिवार भी सँभालना होता है। मुझे माँ को हर हफ्ते अस्पताल ले जाना पड़ता है। समय पर दवाइयाँ देनी पड़ती हैं। ऐसे में यदि सब मिलकर यह जिम्मेदारी निभाएँ तो!" काफी देर तक विचार-विमर्श के बाद रास्ता निकाल लिया गया। बात दिनेश की सही थी। इसलिए दोनों भाइयों ने कोई प्रतिकार नहीं किया। वास्तव में समस्या तो थी ही, इसलिए एक नया रास्ता निकाला गया।

तय हुआ कि अम्माँ बारी-बारी से चार-चार महीने हर भाई के घर में रहेगी, चूँकि सबसे छोटा माँ को साथ नहीं रख सकता, इसलिए वह हर महीने अम्माँ के खर्च हेतु दो हजार रुपए उस भाई के यहाँ भेजेगा, जहाँ अम्माँ रहेगी।

अम्माँ को इस फैसले की जानकारी हुई, तो अम्माँ का कलेजा जैसे मुँह को आ गया। अपने बेटों के इस फैसले से अम्माँ हतप्रभ थी। उसने इसका विरोध भी किया, "मैं कहीं नहीं जाऊँगी यह घर छोड़कर. यहीं पर मरूँगी मैं।"

अम्माँ की क्षीण आवाज भाइयों के फैसले के समक्ष दबी रह गई, किसी ने नहीं सुनी उसकी। बस, कुढ़ कर रह गई थी वह। आज उसे अपने जीवन पर खुद ही तरस आने लगा था। चार-चार बेटे, तीन-तीन बहुएँ, पति द्वारा बनाया गया मकान। ये सारी पूँजी होते हुए भी वह शरणार्थी जैसे हो गई थी अपने ही घर में? मुहल्लेवालों द्वारा उसे दिए गए नाम 'भागोंवाली अम्माँ' पर उसे हँसी आ रही थी आज।

फैसले के अनुसार पहले चार महीने अम्माँ को रखने की जिम्मेदारी बड़े बेटे की थी। बड़े बेटे ने अगले ही दिन चलने की बात कहकर बेचैन कर दिया था अम्माँ को, कातर हो आया था अम्माँ का स्वर।

"मैं कहीं नहीं जाऊँगी शास्त्रीजी का यह घर छोड़कर। मैं कहीं नहीं जाऊँगी।"

"तो क्या हमने ही ठेका ले रखा है, तुम्हारा बोझ उठाने का।" अम्माँ की बात सुन दूसरी बहू रोक नहीं पाई थी अपने आपको।

सुनकर अम्माँ का दिल फट गया, तो अब मैं इन्हें बोझ लगने लगी? क्या नहीं किया है मैंने इनके लिए। नौ महीने पेट में रखा, पाला-पोसा, बड़ा किया। पढ़ाया-लिखाया और शादी करवाई। कराह उठी अम्माँ, "हे भगवान्! क्या यही दिन देखने के लिए जिंदा रखा है तूने मुझे? शास्त्रीजी, क्यों चले गए तुम मुझे यों अधर में छोड़कर? मुझे भी अपने पास क्यों नहीं बुला देते?".

किसी ने नहीं सुनी उसकी करुण पुकार। जब अपने बेटे ही नहीं सुन रहे थे तो ईश्वर ही भला कहाँ सुनता।

यदि ईश्वर सुनने वाला होता, तो लाखों की संख्या में मौत चाहने वाले, गरीब-असहाय, दीन-दुःखी और पीड़ितों को अपने पास न बुला लेता?

अब तो भगवान् भरोसे ही छोड़ दिया था अम्माँ ने अपने आपको। यों भी उसकी बात को सुनने के लिए कोई राजी नहीं था, फिर विरोध करके क्या फायदा? यह बात अम्माँ की समझ में आ गई थी।

सुबह होते ही दिल्ली वाले दोनों बेटे तैयार हो गए। चार जोड़ी कपड़े एक पोटली में रख वह भी मजबूरी में तैयार हो गई। हथियार डाल दिए थे उसने बेटों के फैसले के आगे।

 

बीस

बड़ी बहू को सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि पहाड़ से चलकर बीमार सास यहाँ उनके साथ रहने चली आएगी।

पति के साथ सास को भी घर आया देख उसकी त्योरियाँ चढ़ गईं, किंतु प्रत्यक्ष में वह कुछ नहीं बोली। सुरेश ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि वह अंदर से बहुत ज्यादा कुढ़ गई है।

दो कमरों की इस गृहस्थी में किसी तरह गुजारा कर रहे थे वे लोग, अब ऊपर से एक आफत को अपने साथ ले आए।

इससे पहले सात महीने तक देवर मेहमान बना था। बड़ी मुश्किल से उसको टरकाया, तो अब ये इस बुढ़िया को ले आए।

सुरेश पत्नी के मनोभावों को पढ़ने का आदी हो गया था। समझ गया कि पत्नी का मूड बिगड़ गया है। सो खुद ही बता दिया।

"माँ की तबीयत खराब थी, अब उससे कुछ भी नहीं होता। तीनों भाइयों ने फैसला किया कि बारी-बारी से माँ प्रत्येक भाई के यहाँ चार-चार महीने रहेगी।"

कुछ नहीं बोली रश्मि उस समय। सुरेश ने सोचा, चलो बात खत्म हो गई, किंतु बात खत्म कहाँ हुई थी? बात तो शुरू अब हुई।

रात को सोते समय रश्मि ने बात शुरू की।

"इतने बड़े घर में तो तुम्हारे भाई-बहू रह रहे हैं और बीमारी की हालत में इस मुसीबत को यहाँ भेज दिया है।" रश्मि तुनक कर बोली।

"मैंने बताया न, तीनों भाइयों के यहाँ बारी-बारी से रहेंगी अम्माँ," सुरेश ने जैसे सफाई दी।

"तो पहले किसी और के यहाँ भेज देते।" फिर कहा रश्मि ने। 'बड़ा मैं हूँ, इसलिए बारी मुझसे शुरू हुई है।" सुरेश बोला।

"तुम तो हर जगह पर मारे जाते हो। कुछ भी अक्ल नहीं तुम्हें तो, जो जैसा कहे, वैसा ही मान लेते हो।"

रश्मि ने मुँह फुलाकर बात समाप्त कर दी। बगल के कमरे में चारपाई पर लेटी अम्माँ ने ये सारी बातें सुन लीं। शरीर ही तो कमजोर था उसका। कान अभी कमजोर नहीं हुए थे।

सुनकर आँसू निकल आए उसके। मन हुआ कि अभी पोटली उठाकर निकल जाए इस घर से, लेकिन जाएगी कहाँ? छोटा बेटा है बहू सहित इसी दिल्ली में। इतनी बड़ी दिल्ली में न जाने वह कहाँ रहता होगा।

फिर उसकी बहू भी तो साथ है। वह भी तो ऐसे ही ताने मारेगी। नहीं-नहीं, वह तो खानदानी लड़की है, चार महीने तक सेवा की है उसने घर में रहकर। अच्छा होता कि यहाँ आने के बजाए उसी के साथ चली जाती। कह भी तो रहा था वह साथ चलने को।

घर से साथ ही तो आया था कुलदीप दिल्ली तक। बस अड्डे पर ही तो विदा हुआ था। वहाँ जाते हुए पाँव छूकर कहा था उसने, "माँ, अगर तुम्हें दिक्कत है तो पहले मेरे घर चलो।" पर मना कर दिया था अम्माँ ने।

अब कौन बचा है जो उसे पनाह देगा। खून के घूँट पीने के अलावा और कोई चारा नहीं था उसके पास। किसी भी तरह उसे चार महीने पूरे काटने थे यहाँ।

अम्माँ का दुर्भाग्य यहाँ भी उसका साथ नहीं छोड़ रहा था। पहले दिन से ही उपेक्षा का शिकार होना पड़ा उसे। बेटा सुबह ही नौकरी पर चला जाता तो फिर शाम को ही लौटता। बहू अपनी गृहस्थी के साथ-साथ अपने बच्चों की देखरेख में जुटी रहती।

सुबह और शाम दो रोटी ऐसे डाल जाती जैसे कुत्ते के आगे रोटी का टुकड़ा फेंका जाता है। कुत्ते से भी बदतर जिंदगी हो गई थी उसकी। नाती-नातिन को भी उसने ढंग से समझा दिया था, वे भी अब उसके पल्ले नहीं पड़ते थे।

छुटकी को तो वह खूब समझा चुकी थी, किंतु छोटा अभी नादान था, तो कभी-कभार आ जाता था दादी की चारपाई पर, तो रश्मि तुरंत झिड़क देती थी उसे, "अरे, वहाँ कहाँ बैठ रहा है, खाँसी आ जाएगी तुझ पर भी।"

बच्चों के दिल में भी घृणा के बीज बो दिए थे उसने। सिर्फ बहू-बेटा ही नहीं, नाती-नातिन की उपेक्षा का दंश भी झेलना पड़ रहा था अम्माँ को। इससे तो बढ़िया वहीं अपने घर में पड़ी रहती खाट पर, खाती तो खाती, न खाती तो मर जाती, पर यहाँ तो और भी दुर्गति हो गई थी। वहाँ पर कम-से-कम अडोस-पड़ोस की महिलाएँ तो आ जाया करती थीं कभी-कभार। यहाँ तो कैदियों जैसा जीवन हो गया है उसका।

कुलदीप हर रविवार को आ जाता अम्माँ से मिलने। पास बैठकर कुशल-खबर पूछा लेता, लेकिन उससे कभी भी अपनी स्थिति का जिक्र नहीं किया अम्माँ ने। वह उसको भी कष्ट नहीं देना चाहती थी। फिर अभी उसके पास जाकर भी क्या करती। इस चार महीने के बाद तो उसी के पास जाना था उसे। सो चुप रही, किसी तरह चार महीने कटने का इंतजार करती रही।

किसी तरह रो-पीटकर चार महीने पूरे होने को थे। अभी एक हफ्ता और था चार महीना पूरे होने में, तो बहू ने तीसरी बहू के यहाँ संदेश भिजवा दिया कि अब उनकी बारी है वे तैयार रहें।

बेटा तो कब से तैयार था। हर हफ्ते आकर यही कहता था, माँ कोई कष्ट है, तो मेरे साथ चलो, लेकिन भगवान् का शुक्र है कि पूरे चार महीने कट गए थे उसके इस जेल जैसी जिल्लत भरी जिंदगी के। यहाँ तो चार महीने कट गए, लेकिन अब दूसरे बेटे के यहाँ भी तो चार महीने काटने हैं। चाहकर भी तो वह घर नहीं जा सकती अपने। सच तो यह है कि उसे अपने ही घर में ठीक लगता था। यहाँ तो कई बंदिशें हैं। खाने-पीने से लेकर, रहने-सोने तक सबकुछ बंदिशों में ही करना पड़ता है।

इतना बड़ा परिवार पाला अम्माँ ने, लेकिन वह न तो कभी बंदिश में रही और न किसी पर उसने बंदिश लगाई। स्वतंत्र जीवन जीने दिया था शास्त्रीजी ने उसे और आज, शास्त्रीजी के न रहने पर अपने ही पेट के जायों ने अम्माँ की जो दुर्गति कर दी थी, उस पर आँसू बहाती अम्माँ बस यही सोचा करती थी कि दुनिया आखिर बेटों की चाहना करती क्यों है? शास्त्रीजी ने अपना पेट काट-काटकर जो घर बनाया था, वहाँ रहना भी अम्माँ को नसीब नहीं हुआ और लोग उसे 'भागोंवाली अम्माँ' कहते रहे हैं। अम्माँ का दिल आज फटा जा रहा था बेटों और बहुओं की खुदगर्जी देखकर।

 

इक्कीस

छोटी बहू माधुरी स्वभाव से तो अच्छी थी, औरों की तरह का तो नहीं थी वह। चार महीने जब अम्माँ उसके घर में रखी तो माधुरी ने कोई कमी नहीं होने दी उसे।

लेकिन यहाँ तो उसकी भी अपनी समस्या थी। एक तो वह गर्भवती थी, दूसरे एक कमरे का किराए का घर। वहीं पर किचन और उसके बगल में दोनों की एक खटिया।

अब एक और खटिया अम्माँ की भी पड़ गई थी वहाँ। अम्माँ की खटिया तो बिछी ही रहती, किंतु सुबह होते ही वे दोनों अपनी खटिया को खड़ी कर देते, तब कहीं जाकर खाना बनाने और इधर-उधर जाने की जगह बचती थी।

अम्माँ को लगा कि यहाँ वह बेटे बहू पर और बोझ बन गई थी। बहू ने कभी उसे कुछ नहीं कहा, लेकिन कुलदीप से इस बाबत बात जरूर की थी। अम्माँ ने महसूस किया कि शांत, शालीन और खुशमिजाज रहने वाली बहू के स्वभाव में भी अब धीरे-धीरे उग्रता आने लगी। अब वह बात-बात पर पति पर बिगड़ने लगी थी। उसने अम्माँ को कभी कुछ नहीं कहा दो टाइम का खाना परोसकर देती, लेकिन बेटे के प्रति उसका व्यवहार अम्माँ को कटु लगता।

उसके इस व्यवहार से अम्माँ को सबकुछ समझ आ जाता। माधुरी का व्यवहार गाँव की अपेक्षा बदलने लगा था। अम्माँ समझ रही थी कि चार-पाँच माह स्वतंत्र रूप से रहने पर माधुरी को अब अम्माँ की दखलअंदाजी चुभने लगी थी। एक दिन माधुरी काफी देर तक सोई रही, सुबह कुलदीप को ऑफिस जाना था। कुलदीप ने माधुरी को जगाने के लिए आवाज दी तो माधुरी बड़े रूखे स्वर में बोली कि एक दिन मैं देर में उठूँ तो क्या पहाड़ टूट जाएगा? मेरी कमर दु:ख रही है।

सारा दिन तो बस काम में लगी रहती हूँ। एक दिन जरा देर क्या हो गई तो बस ?

अम्माँ की तरफ एक नजर देख कुलदीप ने समय की नजाकत समझी और ऑफिस के लिए तैयार होने लगा। माँ ने जैसे-तैसे नाश्ता तैयार किया और कुलदीप को नाश्ता कराकर बहू के लिए नाश्ता लेकर गई।

"बहू उठ, ले नाश्ता कर ले।" अम्माँ ने माधुरी से कहा।

"नहीं अम्माँ, मेरी तबीयत ठीक नहीं, मुझे आराम करना है।" थोड़ा रूखी जुबान में माधुरी बोली तो अम्माँ चुपचाप वापस आ गई।

समय के हाथों लाचार अम्माँ का एक-एक पल भारी होता जा रहा था। माधुरी से अम्माँ को ऐसी आशा न थी। एक बार फिर अम्माँ के मनोमस्तिष्क में 'भागोंवाली अम्माँ' शब्द गूंजने लगा।

तो क्या माधुरी ने जो सेवा, जो व्यवहार गाँव में किया वह महज एक दिखावा था? क्या केवल इसलिए कि जब तक गाँव में रहो ठीक, क्योंकि वहाँ पर अपनी मेहनत का पैसा नहीं लग रहा था सेवा में, इसलिए यह सब दिखावा हो रहा था।

नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है। गाँव में तो माधुरी ने सह्रदय मेरी देखभाल की थी। ऐसे न जाने, कितने ही विचार अम्माँ के मन में उठ रहे और फिर स्वयं ही उनको शांत भी कर रही।

एक दिन माधुरी कुलदीप के साथ अपने रूटीन चैकअप के लिए अस्पताल गई। अम्माँ अकेली बाहर आँगन में जो कि संयुक्त रूप से सभी किराएदारों का एक ही था, धूप सेंक रही थी, तभी पड़ोस में सीमा जो कि पिछले तीन सालों से इसी मकान में किराएदार थी, अम्माँ के पास बैठ गई। कुशल-क्षेम पूछने के बाद बातों-ही-बातों में उसने बड़ी बहू का जिक्र कर दिया। अम्माँ ने उत्सुकतावश पूछा तो सीमा कहने लगी, "अम्माँ बड़ी भाभी तो यहाँ हफ्ते में दो या तीन बार जरूर आती हैं। दोनों देवरानी-जेठानी में बहुत प्यार है। सीमा ने सीधे-सरल तरीके से अम्माँ को बताया, लेकिन अम्माँ अब हकीकत समझ गई कि माधुरी के इस कटु व्यवहार के पीछे कारण क्या है। माधुरी और बड़ी बहू की बढ़ती नजदीकियों ने माधुरी और अम्माँ के बीच खाइयाँ बना दीं।

बड़ी बहू का अम्माँ के प्रति कड़वा व्यवहार अब माधुरी के व्यवहार में भी झलकने लगा था।

अब इस एक कमरे के घर में अम्माँ का मन भी घुटने लगा था। अम्माँ तो शास्त्रीजी के साथ पहाड़ के स्वच्छंद जीवन में रहने की आदी हो गई थी, इसलिए इस कमरे के घर में रहकर उसे घुटन महसूस होना स्वाभाविक ही था। कई बार तो अम्माँ मन-ही-मन शास्त्रीजी को याद करते-करते इतनी व्याकुल हो उठती थी कि उसका मन उड़कर पहाड़ के अपने घर जाने को तड़पने लगता था. लेकिन क्या करती?

अम्माँ को लगता कि उसी की वजह से बहू के स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ गया है। अपनी दिनभर की परेशानियों की खीझ वह कुलदीप पर ही निकालती है।

कुलदीप भी इस बात को अच्छी तरह समझ रहा था, किंतु समझकर भी वह मौन साधे रहता। वह भी नहीं चाहता था कि घर में किसी प्रकार का क्लेश पैदा हो। अकसर बेटों के सामने यह समस्या हो जाती है कि जब उन्हें माँ और पत्नी में सामंजस्य स्थापित करना होता है।

अम्माँ को अपने घर की याद बहुत सताती। कितना खुला-खुला था अपना घर। आगे आँगन भी और छत भी अपनी।

जयदीप इन आठ महीनों में लगातार उसके खर्चे के लिए दो-दो हजार रुपए भाइयों को भेजता रहा, लेकिन वे कहीं भी गिनती में नहीं आए। इलाज के नाम पर अम्माँ की दवाइयाँ सरकारी अस्पताल से आ रही थीं। दो जून की रोटी और पहनने के लिए दो जोड़े कपड़े, बस इसके अलावा क्या खर्चा था अम्माँ का।

अम्माँ को अब राहत महसूस होने लगी थी कि कुछ ही दिनों में वह अपने घर में चली जाएगी। वहाँ भी तो उसे दूसरी बहू के अपमान और घृणा का सामना करना पड़ेगा, किंतु इस सबके बावजूद भी घर तो उसका अपना है।

कुलदीप तो माँ को भेजने के लिए राजी नहीं था, पर अम्माँ ने ही जिद पकड़ ली थी घर जाने की। सो अब कुलदीप अम्माँ को दूसरे भाई के यहाँ घर छोड़ आया। फुटबॉल बन गया था अम्माँ का जीवन, कभी इधर तो कभी उधर। न जाने कब तक ऐसे झेलना पड़ेगा। कुलदीप और अम्माँ के साथ-साथ सुरेश भी घर आ गया था।

पूरे आठ माह बाद अम्माँ वापस आई थी, तो दोनों बेटियाँ और दामाद भी पहुँच गए खबर लेने। अम्माँ की हालत देखकर उन्हें दुःख हुआ। वे तो सोच रहे थे कि अम्माँ दिल्ली में बेटों के साथ रह रही थी, तो अब काफी स्वस्थ हो गई होगी, किंतु इसके उलट वह तो सूखकर काँटा हो गई थी।

दोनों दामाद अपने सास-ससुर की बहुत इज्जत करते थे। अम्माँ की यह हालत देखकर उनसे रहा न गया।

रात को बड़े दामाद ने प्रस्ताव रख दिया।

"अम्माँ को यदि हम लोग अपने साथ ले जाएँ तो कैसा रहेगा?" सुनकर दोनों बड़े भाई तो भड़क गए।

"हम लोग कोई कमी तो नहीं कर रहे हैं अम्माँ के लिए?" बड़ा भाई बोला।

"हमने यह तो नहीं कहा भैया कि आप लोग कोई कमी कर रहे हैं, हम तो यह कह रहे हैं कि हमें भी माँ की सेवा का मौका मिल जाता।" बहिन ने समझाया तो भाई थोड़ा सा शांत दिखाई दिया, लेकिन अबकी बार दूसरा भाई बोला, "चार-चार बेटों के होते अम्माँ बेटियों के पास रहेगी, तो लोग क्या कहेंगे?"

तो अम्माँ की हालत से अधिक उन्हें लोगों के कहने की चिंता थी। बहिन समझ गई, मन-ही-मन सोचने लगी वह, अम्माँ की जो बेकदरी कर रहे हो उसके बारे में लोग क्या कह रहे हैं, यह नहीं पता तुम्हें?

लेकिन मन की बात मन में ही रखी, कहा कुछ नहीं। दामाद भी समझ गए थे कि अपने झूठे मान-सम्मान को बचाने और लोक-लाज की डर से वे अम्माँ को किसी भी बेटी के पास नहीं भेजेगे। गुस्सा तो बहुत आया दोनों दामादों को, पर करते क्या? मन तो कर रहा था कि इनसे बिना पूछे ही अम्माँ का सामान बाँधकर ले जाएँ उसे अपने साथ, लेकिन नैतिकता इसकी इजाजत नहीं दे रही थी।

बात आगे होती, लेकिन अम्माँ ने खुद भी कह दिया। "नहीं-नहीं, मैं नहीं जाऊँगी किसी के पास।" बेटों के होते हुए बेटियों के पास जाकर रहना अम्माँ के पुरातनपंथी मन को भी अच्छा नहीं लगा। बात वहीं-की-वहीं खत्म हो गई। अम्माँ को बेटों के टुकड़ों पर पलना मंजूर था, पर बेटियों के यहाँ जाकर रहना नहीं।

आखिर बेटियाँ भी क्या करतीं। आँसू बहाकर चली गईं वे भी वापस अपनी ससुराल।

अम्माँ फिर से दूसरे बेटे और बहू के भरोसे छूट गई। किस्मत से उसी दिन सबसे छोटा बेटा जयदीप भी छुट्टी पर घर पहुँच गया। दो महीने की छुट्टी आया था वह। सौभाग्य से उसे अपने घर से केवल 15 कि.मी. की दूरी पर ही सुविधाजनक स्थान पर ड्यूटी मिल गई थी। उसकी यूनिट तीन वर्ष के लिए पोस्टिंग आ गई थी यहाँ पर। आते ही तीनों बड़े भाइयों को फरमान सुना दिया था उसने, "माँ अब कहीं नहीं जाएगी। यहीं रहेगी मेरे साथ इसी घर में।

"तीनों भाई हक्के-बक्के रह गए, एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे।

तो क्या यह नौकरी छोड़ आया है?

भगोड़ा तो नहीं हो गया फौज से? वापस तो नहीं भेज दिया फौज ने।

तीनों भाई अपने-अपने दृष्टिकोण से सोच रहे थे।

तीनों को ठगा हुआ सा देखकर उसने खुद ही बता दिया।

तीन वर्षों के लिए मेरी यूनिट यहीं पर आ गई है।

सुनकर तीनों भाइयों ने संतोष की साँस ली। चलो अच्छा हुआ, समाधान निकल गया।

दो महीने तक तो छुट्टी थी उसकी, फिर उसके बाद यहीं ज्वॉइनिंग करनी थी उसे। नेपाल से लगती सीमा थी यहाँ, सो हमेशा ही फौज का कैंप रहता है यहाँ पर। बारी-बारी से सब यूनिटें आती-जाती रहती हैं।

तीनों भाई उसके यहाँ आने से खुश हुए, लेकिन दूसरे भाई की पत्नी को इस बात से टीस हो आई।

दो हजार रुपए महीने की आमदनी पर ब्रेक जो लग गया था उसकी। बहुत होते हैं दो हजार रुपए भी। मन-ही-मन सोचा उसने, 'कौन सा इतना खर्चा लगता है बुढ़िया पर, इतने में अपनी सब्जी का खर्च तो निकल जाता था।'

अम्माँ के जीने-मरने में भी सबको अपना-अपना स्वार्थ दीख रहा था, पत्नियों की नजर अम्माँ के गहनों पर थी, तो भाइयों की नजर घर के बँटवारे पर।

फिलहाल तीनों भाइयों का मन काफी हलका हो गया था। दूसरे दिन दिल्ली वाले दोनों भाई वापस अपनी ड्यूटी पर चले गए।

 

बाईस

सूख कर काँटा हो गई थी, अम्माँ शरीर में कुछ भी जान नहीं रह गई थी, लेकिन छोटे बेटे की यहीं नियुक्ति होने से खुशी थी उसके मन में।

इसी खुशी में छोटे के लिए अपने ही हाथ से एक-दो दिन कच्चा-पक्का खाना खिलाकर संतोष भी मिला अम्माँ को, लेकिन छोटा भी समझ गया कि अब खाना बनाने की सामर्थ्य नहीं रही अम्माँ में। वह खुद ही सुबह-शाम रसोई में चला जाता। अधिकांश काम खुद ही निबटाता, झाडू-पोछा से लेकर चौका-बरतन तक वह खुद ही निबटाता। अपने और अम्माँ के कपड़े भी वह खुद ही धो लेता। उस पर काम की यह अधिकता भी अम्माँ को बरदाश्त नहीं होती, तो उसे पास बैठाकर अम्माँ बोली, "तू भी शादी कर ले अब, तेरी बहू का चाँद सा मुखड़ा भी देख लूँ, तो चैन से मर सकूँगी मैं।"

"नहीं अम्माँ," प्रतिरोध किया छोटे ने, "तीन-तीन बहुएँ लाकर भी तबीयत नहीं भरी तेरी, जो चौथी लाने की बात कर रही है।"

"मेरी तो छोड़, मैं तो तेरे भविष्य की बात कर रही हूँ।" अम्माँ बोली।

लेकिन छोटे को तो ब्याह के नाम से ही घृणा हो गई थी। शादी होने के पश्चात् अम्माँ के प्रति भाइयों के बदलते रुख के लिए वह भाभियों को ही जिम्मेदार मानता था।

भाइयों का रुख तो अलग बात है, भाभियों के कटु वचन और कुचक्र देख-सुनकर तो शादी के नाम से भी छोटा बेटा बुरी तरह भयभीत होने लगा था।

क्या करना है ऐसी शादी करके, जिससे परिवार के बीच विघटन हो जाए, माँ-बेटे के बीच लकीर खिंच जाए, भाई-भाइयों के बीच तलवारें खिंच जाएँ।

लेकिन अम्माँ भी जिद पर उतर आई थी। जवान बेटे को बहू की तरह काम करते देख उसका मन बेचैन हो उठता। अम्माँ ने कड़ाई से कह दिया कि यदि मेरी बात नहीं मानता तो किचन में नहीं घुसना है। कर लूँगी मैं जैसे भी होगा, कच्चा-पक्का बना लूँगी।

समस्या के समाधान और माँ की जिद के आगे बीच का रास्ता निकाल लिया जयदीप ने। उसने खाना बनाने और माँ की सेवा करने के लिए एक नौकरानी रख ली थी, लेकिन वह भी ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकी।

उसके चले जाने के बाद जयदीप ने दूसरी नौकरानी का प्रबंध कर लिया, लेकिन वह तो और भी शातिर निकली। अम्माँ की बीमारी और लाचारी का फायदा उठाकर वह घर के सामान पर ही हाथ साफ करके चलती बनी।

अम्माँ बार-बार एक ही बात की रट लगाए रहती, "अरे, यदि तू मुझे कुछ दिन और जिंदा देखना चाहता है, तो मेरी बात मान ले, बहू ले आ मेरे लिए। बहू के हाथ की रोटी मिलेगी, तो दो-चार दिन प्राण टिक जाएँगे मेरे। मरूँगी भी तो शांति के साथ मरूँगी। मेरी बात क्यों नहीं मानता तू?"

हालाँकि अम्माँ भी जानती थी कि तीन-तीन बहुओं के हाथ की रोटी किस कदर खाई थी उसने, किंतु यह बात तो सिर्फ बहाना थी। असल बात तो यह थी कि अपने जीते-जी वह छोटे का घर बसा हुआ देखना चाहती थी।

जयदीप भी तो माँ की इस भावना को समझता था। बहुओं ने अम्माँ को कैसी रोटी खिलाई, यह उससे भी छुपा हुआ नहीं था। अब अगर चौथी भी वैसी ही निकल जाए, तो क्या होगा? यही सोचकर रूह काँप जाती उसकी।

रोज-रोज सुबह और शाम माँ की इसी रट से उसे नए सिरे से सोचने पर मजबूर होना पड़ा, लेकिन वह इस सत्य को भी जानता था कि यदि सही ढंग से माँ की सेवा-सुश्रुश्रा हो, तो अम्माँ जी सकती है काफी वर्ष तक। अभी इतनी उम्र भी तो नहीं हुई अम्माँ की। असमय ही पिता के चले जाने, बहुओं और बेटों की उपेक्षा के चलते ही, समय से पहले बुढ़ापे ने घेर लिया था अम्माँ को। वह चाहता था कि अम्माँ जीवित रहे, उसे माँ की जरूरत थी।

मन में कई आशंकाएँ जन्म लेतीं, शादी के बाद कहीं उसके संबंध भाइयों से न बिगड़ें। कहीं उसकी भी पत्नी भाभियों की तरह ही न निकल जाए।

अनेक दुर्भावनाएँ भी आतीं, तो कई बार मन कहता कि अपनी पत्नी और परिवार को मुट्ठी में रखना तो मर्द के हाथ में होता है। यदि पत्नी परिवार के अनुरूप न हो, तो सारे विकल्प खुले होते हैं आदमी के सामने। कोई जरूरी तो नहीं कि घुट-घुटकर रिश्तों को झेला जाए।

बहुत सोच-विचार के बाद उसने अम्माँ को शादी के लिए हाँ कह दी। अम्माँ की खुशी का ठिकाना न रहा। उसी दिन अपने भाई को तुरंत ही लड़की खोजने हेतु संदेश भी भिजवा दिया।

साथ में यह भी कहलवा दिया था कि लड़की गरीब घर की चाहिए, दान-दहेज में कुछ नहीं चाहिए, शादी भी बहुत सादगी से होगी।

मामा की तो विशेषता थी इस मामले में। तीसरे ही दिन एक नहीं बल्कि चार-चार रिश्ते और लड़कियों के फोटो लेकर घर पर आ पहुँचे।

मामाजी ने ही सलाह दी कि वह खुद ही लड़की देखने साथ में चले तो एक-एक कर चारों लड़कियों को दिखा देंगे। मामाजी की बात बड़ी अटपटी लगी उसे, तो बोला, "मामाजी, आप ही पहले यह बताइए कि आपको चारों में से कौन सी लड़की और परिवार ज्यादा पसंद है। मैं केवल वही देखने जाऊँगा।"

मामाजी को जो सबसे मुफीद रिश्ता लगा, वह उन्होंने बता दिया। पढ़ी-लिखी लड़की थी, परिवार गरीब था, लेकिन संस्कारी था।

तय हो गया कि कल ही देखने चलेंगे। जयदीप चाहता था कि बहुत ही सूक्ष्म तरीके से सबकुछ संपन्न हो जाए। सवा साल की अपनी इस नौकरी में बहुत ज्यादा जमा नहीं कर पाया वह, लेकिन जितना कुछ भी उसके पास जमा था, वह मुहल्ले-पड़ोस को एक समय के भोजन करवाने के लिए काफी था।

लड़की पहली ही नजर में पसंद आ गई थी जयदीप को। लड़की ही नहीं, लड़की का घर-बार और परिवार भी पसंद आया था उसे। गरीब कृषक परिवार था, किंतु सीधे-सादे और संस्कारी लोग थे। लड़की के पिता तो बहुत ही सज्जन व्यक्ति लगे थे उसे।

जयदीप की शादी को लेकर अम्माँ की भी कई हसरतें थीं। आखिरी बेटा था उसका। वह चाहती थी कि और बेटों की तरह से उसकी शादी भी धूमधाम से हो, लेकिन जयदीप राजी नहीं था इसके लिए। फिर शादी में होने वाले खर्चे की भी चिंता थी अम्माँ को। कुलदीप की शादी से पूर्व कितना बवंडर हो गया था घर में। दोनों बड़े भाइयों ने हाथ झाड़ दिए थे अपने-अपने।

रो-पीटकर तीस-तीस हजार जमा कर पाए थे, अब फिर छोटे की शादी की बात आएगी, तो वही इतिहास फिर दोहराएँगे वे। पहले तो दो ही थे, अब तीन भाई थे बड़े, किंतु खर्च की नौबत आएगी तो पल्ला झाड़ लेंगे तीनों।

सो अम्माँ ने भी तय किया कि सादगी से ही विवाह किया जाए। इस बार वह किसी को भी छोटे की शादी के लिए खर्चा करने को नहीं कहेगी।

बात पक्की करवा दी थी अम्माँ ने और शादी के लिए भी तीन महीने के बाद की तिथि तय कर दी थी।

तीनों बेटों को इत्तिला करवा दी अम्माँ ने। छोटे की शादी की तिथि की सूचना पाकर हाथ-पाँव फूल गए थे तीनों भाइयों के। अभी एक वर्ष पहले ही तो कुलदीप की शादी की है उन्होंने। एक वर्ष के अंदर दो शादियाँ कैसे कर पाएँगे। आखिर पैसा आएगा कहाँ से हमारे पास। अब अम्माँ फिर हमें घर बुलाकर वही पुरानी वाली बात दोहराएगी, फिर वही किस्सा होगा, जो एक वर्ष पहले हुआ था।

तीनों को बहुत तनाव हो गया था, लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि शादी एकदम सादगी से हो रही है और उन पर खर्चे की कोई डिमांड नहीं है, तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा।

 

तेईस

दो माह की छुट्टी काटकर वहीं ड्यूटी भी ज्वॉइन कर ली थी जयदीप ने। इन दो महीनों में उसने मामाजी की मदद से शादी के लिए आवश्यक सामान जुटाकर सारी तैयारियां पूरी कर ली थीं।

अब वह घर से सुबह ड्यूटी पर जाता और शाम को लौट आता था। उसकी परिस्थितियों को देखते हुए उसके उच्चाधिकारियों ने उसे ऑफिस से संबद्ध कर दिया और रात्रि को अपनी माँ के पास घर जाने की अनुमति भी प्रदान कर दी थी।

तीन माह इसी तरह कट गए। शादी की तिथि नजदीक आई, तो दोनों दिल्ली वाले भाई परिवार के साथ घर पहुँच गए। सूने घर में एक बार फिर रौनक आ गई। भाई लोग जहाँ जिम्मेदारी मुक्ति के कारण आश्वस्त थे, तो वहीं बहुएँ आशंकित थीं। उन्हें शंका थी कि अम्माँ इस बार अपने बचे-खुचे गहने बेच डालेगी और अम्माँ के बाद उनके हाथ कुछ नहीं आएगा।

हुआ भी ऐसा ही, अब उनके हाथ कुछ नहीं आनेवाला था। अम्माँ ने गहने बेचे तो नहीं, लेकिन उन गहनों को तुड़वाकर छोटे की बहू के लिए दूसरे गहने बनवा लिये थे।

तीनों बहुओं के लिए गहने बनाए थे अम्माँ ने, फिर छोटे की बहू के लिए भी भला क्यों न बनाती?

निश्चित दिन पर शादी भी हो गई। बहुत ही संक्षिप्त सा कार्यक्रम रखा गया था। बैंड-बाजा कुछ नहीं किया था। नाते-रिश्तेदार और अड़ोस-पड़ोस के बीस आदमी मिलकर दूल्हे के साथ पहुंचे थे लड़की लेने। वहीं एक मंदिर में शादी कर बहू को ले आए थे।

घर में जरूर उस दिन भोज का आयोजन किया गया था, जिसमें मुहल्ले सहित सभी नातेदार-रिश्तेदार और जयदीप के दोस्त शामिल हुए थे।

सुनीता के रूप में चौथी बहू ले आई थी अम्माँ। शरीर तो इजाजत नहीं दे रहा था अम्माँ को, किंतु उत्साह और खुशी के मारे कँपकँपाते शरीर के साथ ही सारी रस्मों में हिस्सा लिया था अम्माँ ने। नई-नवेली दुल्हन को पाकर जयदीप भी प्रसन्न था। जयदीप ही क्यों, सभी प्रसन्न थे। भाई लोग तो कुछ ज्यादा ही प्रसन्न थे। चलो खर्चा बच गया, छोटे ने ही सारा खर्चा उठाया था अपनी शादी का।

सुनीता ने आते ही पूरे घर को सँभाल लिया। धीरे-धीरे सभी मेहमान और रिश्तेदार अपने-अपने घरों को चलते बने। दिल्ली वाले दोनों भाई भी सपरिवार लौट गए। सुनीता छोटे घर की कामकाजी बेटी थी, उसे नई जगह की सारी व्यवस्थाओं को समझने में ज्यादा समय नहीं लगा।

जयदीप का जीवन अब नए ढर्रे पर ही चल निकला। साथ ही अम्माँ के जीवन में कुछ राहत जरूर आ गई थी। अब उसे समय से खाना-पीना और दवाई मिल रही थी। छोटी बहू सेवा खूब कर रही थी।

लेकिन अम्माँ को अब किसी पर भी भरोसा न रहा, न जाने यह बहू भी कब रंग बदल दे। अम्माँ सोचती, 'अब तो शांति से मर सकेगी वह। शास्त्रीजी के जाने के बाद उसने अपनी किसी भी जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ा, घोर तंगी और कठिन परिस्थितियों के बाद भी उसने शास्त्रीजी के सपने पूरे किए। किसी को भी अहसास नहीं होने दिया कि इस परिवार का कोई मुखिया नहीं है।'

दर-दर की ठोकर खाई उसने, अपमान और उपेक्षा सही। बाहर वालों की ही नहीं, बल्कि अपनों की ही बेरूखी भी झेलनी पडी उसे, लेकिन अब वह सारी जिम्मेदारियों से मुक्त थी। अपने जीते-जी सबका घर बसा दिया था उसने। अब कुछ करना बाकी नहीं रह गया था उसे।

बेटे-बहुएँ चाहे जैसे भी हों, आखिर थे तो उसी के। अम्माँ को विश्वास था कि उसके मरते दम तक सबके सब एक हो जाएँगे, लेकिन इनसान का सोचा हुआ इनसान के पास ही रहता है। होता वही है, जो ऊपर वाले को मंजूर होता है।

अम्माँ को कहाँ मालूम था कि अभी उसे और क्या-क्या देखना पड़ेगा।

घर में अब शांति थी। एक ही घर के अलग-अलग हिस्सों में रह रही बहुओं में न के बराबर बात होती थी। कुछ खास बात होती, तो ही आपस में बोलती थीं, वरना अपने-अपने कामों में ही व्यस्त रहतीं।

यही स्थिति भाइयों की भी थी। दुआ सलामी और आओ बैठ तक ही बात होती। दिन भर दोनों अपनी-अपनी ड्यूटी पर ही होते। बस कभी-कभार सायंकाल को मिलते, तो एक चाय साथ पी लेते। लेकिन दिल्ली में रह रही बहुओं की अब काफी नजदीकी बढ़ गई थी। अब दोनों एक-दूसरे के घर में आने-जाने लगी थीं। यह देख दोनों भाइयों को भी खुशी होती।

दोनों देवरानी-जेठानी जब मिलतीं तो उनकी बातों का विषय अपनी समस्याएँ ही रहतीं। दोनों अपनी-अपनी आर्थिक तंगी का रोना रोतीं और घूम-फिर कर बात घर में रह रहीं देवर-देवरानी और जेठ-जेठानी पर आकर टिक जाती।

कल की ही बात है जब दोनों देवरानी-जेठानी मिलीं, तो उनके मन को वह गुब्बार बाहर आ ही गया, जो लंबे समय से अंदर थमा हुआ था।

"अरे दीदी, वे लोग तो पुण्य कमाकर लाए हैं। ससुरजी के बनाए इतने बड़े मकान में ऐश कर रहे हैं।" छोटी कहती।

"हाँ माधुरी, तू तो ठीक ही कहती है, मैंने तो उस घर में कभी भी सुख नहीं भोगा। हमेशा जिम्मेदारियों का पहाड़ ढोया है सिर पर।" बड़ी कहती।

"दीदी, यहाँ तो हमें कितनी कठिनाइयों में किराए के एक कमरे में गुजारा करना पड़ रहा है, अपना घर कितना बड़ा है खुला-खुला।" छोटी अपना दुःख व्यक्त करती।

"मैं तो पिछले कई सालों से यह दु:ख झेल रही हूँ। कभी-कभी तो मन करता है कि सबकुछ छोड़-छाड़कर घर चले जाएँ, पर क्या करें बच्चों की पढ़ाई की भी मजबूरी है।" रश्मि भी अपना दुखड़ा सुनाती।

"वे लोग कितने आराम से रह रहे हैं वहाँ पर दो हिस्सों में।" माधुरी बोली।

"हिस्से तो चार होने थे, लेकिन दो हिस्से हो रखे हैं। हमारा तो जैसे हक ही न हो वहाँ पर।" रश्मि ने वह बात कह दी, जिसको कहने के लिए माधुरी भूमिका बाँध रही थी।

"तो दीदी, तुम जेठजी से बात क्यों नहीं करतीं?" पूछा उसने।

"करनी पड़ेगी अब तो, लेकिन तू भी देवरजी को यह बात समझा।" रश्मि बोली।

दोनों एक मत होकर अपने-अपने घरों को चली गईं।


चौबीस

बात मन में बैठी, तो आगे भी बढ़ गई। दोनों भाइयों ने सोचा कि कहती तो उनकी पत्नियाँ बिलकुल ठीक ही हैं। पत्नियों की रोज-रोज के दुखड़े रोने से आजिज आ गए दोनों। बात कुछ गलत भी तो नहीं थी, उनका भी तो अधिकार है उस घर पर। यदि हिस्से न होते, तो बात ही नहीं थी, लेकिन जब हिस्से हुए तो दो क्यों हुए, चार क्यों नहीं?

इसी बात पर दोनों भाई साथ भी बैठ गए, बात एक-दूसरे की समझ में भी आ गई थी। समझ में आई तो एकमत भी हो गए और पहुँच गए छुट्टी लेकर घर।

चारों भाई एक साथ बैठे। दोनों को भी मकान में अपना हिस्सा चाहिए था, लेकिन शास्त्रीजी ने मकान हिस्सा करने के मतलब से तो बनाया नहीं था। उन्होंने तो कभी कल्पना तक नहीं की होगी कि एक दिन इस घर में दीवारें डालने की नौबत भी आएगी।

चार भाइयों की दृष्टि से उन्होंने चार कमरे तो बनाए थे, लेकिन देखा जाए तो इन चार कमरों का किसी भी तरह बँटवारा नहीं हो पा रहा था।

"भाई, हम लोग भी छटी-छमाही घर आते हैं, तो हमारे परिवार को मेहमानों की तरह रहना पड़ता है।" बड़े भाई ने कहा।

"अपना हिस्सा हो, तो कैसे भी रह सकते हैं, कितने भी दिन रह सकते हैं।" तीसरे ने बड़े की बात का समर्थन किया।

"हम अपने हिस्से को किसी को दें या फिर ताला लगा दें, पर हिस्सा तो हमारा भी बनता है न।" बड़े ने तर्क दिया।

दूसरा भाई बात की गंभीरता को समझ चुका था। बोलने के लिए कुछ था ही नहीं उसके पास, जबकि छोटा सबकी बातें धैर्य से सुन रहा था।

"हिस्सा तो बनता है, पर हिस्से होंगे कैसे?" कुछ देर बाद दिनेश खुद ही बोला।

"जैसे भी हों, हिस्से तो करने ही पड़ेंगे।" बड़ा अड़ गया था।

"हाँ, एक-एक कमरा ही सही, लेकिन चार हिस्से करने चाहिए।" तीसरा भाई बोला।

काफी विचार-मंथन के बाद दूसरे भाई ने बीच का रास्ता निकाल लिया।

"ऐसा करते हैं कि मकान की आज की कीमत निकाल लेते हैं, उसके चार हिस्से कर देते हैं। फिर जिस भाई को भी मकान चाहिए होगा, वह बाकी के तीनों भाइयों को उनके हिस्से का पैसा चुकाएगा।"

"और माँ का हिस्सा? माँ कहाँ जाएगी।" छोटा जो अभी तक चुप बैठा था, उसने अपना तर्क दिया। झटका लगा तीनों भाइयों को। क्या बात कह दी इसने? तीनों ने सोचा, माँ रहती तो इसी के साथ है, फिर माँ के बाद वह हिस्सा इसी का हो जाएगा। माँ का हिस्सा, माँ क्या करेगी हिस्से का? हम हैं न उसके लिए।" बड़े ने बड़ी चतुरता से कहा।

हाँ, भाई ठीक कहता है, माँ कहाँ जाएगी अपना हिस्सा लेकर।" दूसरे ने उसकी बात का समर्थन किया।

"माँ अब रहेगी कितने दिने, मिलकर पाल लेंगे।" तीसरे ने भी उस बात पर मुहर लगा दी। तीनों भाई एक हो गए।

"मालूम है मिलकर पाल लोगे। चार महीने पालने की हिम्मत तो नहीं तुम लोगों में।" छोटे ने कटता से कहा।

"क्यों नहीं पाला हमने, सबने चार-चार महीने अपने पास रखी माँ को।" बड़ा कुछ उग्र हो गया था।

"हाँ, रखी हैं अपने पास आपने, लेकिन दो-दो हजार रुपए भेजे हैं मैंने माँ के खर्चे के लिए।" छोटे ने भी उसी अंदाज में उसकी बात का जवाब दिया।

तीनों चुप, कोई जवाब नहीं था उनके पास। कुछ देर की खामोशी के बाद फिर बड़े भाई ने बड़े मुलायम स्वर में कहा, "छोटे, तुझसे इसलिए खर्चा लिया कि तु माँ को चार महीने रखने की स्थिति में नहीं था।"

"हाँ, तेरी भी तो चार महीने रखने की जिम्मेदारी थी। कहाँ ले जाता माँ को।" दूसरे ने भी तत्काल बात पूरी की।

"अरे दो हजार तो अम्माँ की दवाई के लिए भी पूरे नहीं होते थे।" तीसरे ने उस बात को और मजबूती दी।

अकेला पड़ गया था छोटा। उनके सामने हथियार डाल दिए थे उसने।

अब बड़े ने बात को आगे बढ़ाया, "तो कीमत तय कर लो मकान की और कौन भाई इस मकान को रखेगा यह भी तय कर दो।"

कुछ देर खामोशी रही। दोनों दिल्ली वालों की तो जरूरत थी नहीं। उन्हें क्या करना था मकान रखकर। बच्चे तो दिल्ली हैं, दिल्ली ही रहेंगे।

जरूरत दूसरे भाई की सबसे ज्यादा थी। वह इसी जगह नौकरी पर था, उसे हमेशा यहीं नौकरी करनी थी, यहीं पर परिवार रहना था उसका।

जरूरत छोटे की भी हो सकती थी, पर अभी उसके बाल न बच्चे। ऊपर से फौज की नौकरी, न जाने कहाँ-कहाँ पोस्टिंग होगी। माँ के बाद वह क्या करेगा इतने बड़े घर का। वह भी तो साथ ले जाएगा अपने बच्चों को। माना अगर वह घर खरीद भी लेता है, लेकिन पैसा कहाँ था उसके पास। अभी-अभी तो शादी हुई है उसकी। सारी जमा-पूँजी खत्म थी उसके पास।

चारों भाई अपने-अपने ढंग से सोच रहे थे, लंबी खामोशी के बाद दूसरे नंबरवाला भाई ही बोला, "मकान मुझे चाहिए, मैं चुकाऊँगा सबका हिस्सा, लेकिन बारी-बारी से। जिसका भी हिस्सा चुकाऊँगा वह उसी दिन से अपना दावा छोड़ देगा मकान पर।"

तुरंत राजी हो गए दिल्ली वाले, उन्हें तो जरूरत थी नहीं। बदले में पैसा मिल रहा था। कुछ न होगा तो उस पैसे से दिल्ली में कहीं दूर-दराज इलाके में एक टुकड़ा जमीन का तो मिल ही जाएगा।

छोटा मौन रहा, फैसले के आगे वह बोलता भी क्या, लाचार था।

यह तय हो गया कि आज से ही चार हिस्से समझे जाएँ मकान के। जिस दिन दूसरा भाई सबका पैसा चुका देगा, पूरा मकान उसका हो जाएगा।

फैसले से संतुष्ट दोनों दिल्ली वाले भाई अगले दिन सुबह ही दिल्ली चले गए।

अम्माँ को कुछ खटका जरूर हुआ। दोनों भाइयों का अचानक दिल्ली से घर आना और चारों भाइयों का गुपचुप बैठना उसकी समझ में नहीं आया।

चारों के बीच यह भी तय हो गया था कि यह बात अम्माँ से छिपाकर रखी जाए।

लेकिन वह आखिर माँ थी उन सबकी। कुछ शंका जरूर पैदा हो गई थी अम्माँ के दिल में, दोनों के दिल्ली चले जाने के बाद उसने छोटे से पूछ लिया था।

"छोटे, क्या बात है, क्या बातें हुई तुम चारों में?"

"कुछ नहीं माँ, बैठकर भविष्य की योजना कर रहे थे।" छोटे ने सफेद झूठ बोला।

"नहीं-नहीं कुछ तो है। वे अचानक कैसे आ गए दिल्ली से।" पूछा शंकित माँ ने।

"छुट्टी थी उनकी, इसलिए आपको देखने आए थे।" छोटे ने समझाया।

समझ गई अम्माँ कि छोटा कुछ छिपा रहा था, मालूम था अम्माँ को कि कितनी चिंता है उन्हें अपनी माँ की, जो एक दिन की छुट्टी में देखने आएँगे।

अम्माँ उससे तो कुछ आगे नहीं बोली, किंतु उसके ड्यूटी पर चले जाने के बाद बहू को कुरेदने लगी।

पहले तो बहू ने कुछ नहीं बताया, किंतु बार-बार कुरेदने पर आखिर उसने सारी बातें बता ही दीं।

 

पच्चीस

कलेजा मुँह में आ गया हो अम्माँ का जैसे। घर बँटवारे और बिकने की बात सुनकर अम्माँ व्याकुल हो गई, कितने बुरे दिन देखने पड़ रहे हैं उसे।

"तो तुम यह घर खाली कर दोगे?" काँपती आवाज में बहू से पूछा अम्माँ ने। "नहीं, अभी नहीं, पहले आपके बेटे अपने लिए सरकारी कमरा देखेंगे, फिर हम सभी वहाँ जाएँगे।" बहू ने कहा।

"नहीं, मैं कहीं नहीं जाऊँगी शास्त्रीजी की आखिरी निशानी छोड़कर। जहाँ उन्होंने आखिरी साँस ली, वहीं मैं भी दम तोड़ेंगी।" अंतिम समय में अपना घर छोड़ने की कल्पना से काँप उठी थी अम्माँ की रूह।

"नहीं-नहीं, मैं नहीं जाऊँगी कहीं, मुझसे कोई खाली नहीं करा सकता मेरा घर, शास्त्रीजी ने कितने प्यार से बनाया था यह घर, मैं नहीं जाऊँगी। मैं नहीं...।" अम्माँ बड़बड़ाने लगी। "माँजी, अभी कौन जा रहा है, अभी नहीं जा रहे हैं हम लोग।" बहू ने बहलाने की कोशिश की अम्माँ को।

लेकिन अम्माँ ने तो एक ही रटन पकड़ ली थी, "कहीं नहीं जाऊँगी। यहीं पर मरूँगी...शास्त्रीजी की निशानी है मेरा यह घर...। मेरा घर..." झटका लग गया था अम्माँ को, बड़बड़ाए जा रही थी बस।

शाम को जयदीप घर आया, तो माँ की मानसिक हालत देखकर परेशान हो गया।

"क्या हो गया अम्माँ को...?" उसने पत्नी से पूछा।

"पता नहीं, सबह से यही बडबडा रही हैं।" पत्नी ने सारी बातें बता दीं पति को।

बहुत नाराज हुआ वह पत्नी पर। आखिर क्या जरूरत थी माँ को यह सब बताने की। उसने माँ के माथे को छुआ तो माथा तप रहा था उसका।

नहीं जाऊँगी मैं कहीं...। मुझे यहीं मरना है मुझे, शास्त्रीजी की निशानी है यह।" अम्माँ बुखार में बड़बड़ाए जा रही थी।

घबराकर वह तुरंत डॉक्टर को लेने दौड़ पड़ा। डॉक्टर आया। चैकअप किया। कुछ दवाइयाँ लिख दी और एक इंजेक्शन दे गया।

"हार्ट पर शॉक लगा है जबरदस्त। ऐसे मामले में कभी-कभी पेशेंट कोमा जैसी स्थिति में भी चला जाता है।" डॉक्टर ने बताया।

चिंता की रेखाएँ उभर आईं जयदीप के माथे पर, "क्या होगा अब? कैसे बचाएगा अम्माँ का जीवन?"

एक नहीं, अनेक डॉक्टरों को दिखा दिया था उसने अम्माँ को, लेकिन डॉक्टरों ने भी हाथ खड़े कर दिए। माँ की हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी। बड़बड़ाहट अब और बढ़ती जा रही थी।

एक ओर अम्माँ की बीमारी, दूसरी ओर अपनी नौकरी। बड़ी ही कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा था जयदीप को, लेकिन फिर भी परेशानियों का मुकाबला कर रहा था वह। मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रही थीं, ऊपर से एक और मुसीबत सिर पर आन खड़ी हुई थी।

दिनेश मकान के बँटवारे के उसके पैसे उसके हाथ में पकड़ा गया। भाभी बोली, "देवरजी, बच्चे बड़े हो रहे हैं, जगह कम पड़ रही है, अब तुम जितनी जल्दी हो मकान खाली कर दो।"

जमीन खिसक गई उसके पैरों तले की, कितने निर्दयी हो गए हैं ये लोग। अम्माँ एक माह से खटिया पर पड़ी बड़बड़ा रही है और ये हैं कि उसे बेदखल करने पर तुले हैं।

उसने अब मकान की तलाश भी शुरू कर दी। सरकारी मकान तो तुरंत मिलने से रहा, फिलहाल किराए का मकान ही देखना होगा।

माँ चारपाई पर पड़ी बड़बड़ाती रहती, लेकिन बगल में रह रहे बेटा-बहू एक बार भी अम्माँ को देखने तक नहीं आए।

जैसे-जैसे मकान खोजने की उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी, वैसे-वैसे अम्माँ की तबीयत भी बिगड़ती जा रही थी।

जब घर मिल गया जयदीप को, तो उसने सामान बाँधना शुरू किया। अम्माँ को जैसे ही पता चला कि घर मिल गया, तो वह घोर विषाद में पड़ गई, तुरंत उसे हॉस्पिटल पहुँचाया गया, डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए।

"अब कोई इलाज नहीं रह गया है, अब अगर इनकी कोई आखिरी इच्छा रह गई हो, तो उसे पूरा करने की कोशिश कीजिए और प्रभु से प्रार्थना कीजिए।" वह जानता था कि अम्माँ की आखिरी इच्छा क्या थी। पिताजी के मेहनत और प्यार से बनाए घर को अम्माँ किसी भी कीमत पर बिखरने नहीं देना चाहती थी। जीते-जी इस घर से नाता नहीं तोड़ना चाहती थी। यहीं अंतिम साँस लेना चाहती थी।

अम्माँ को घर ले आया वह और भाइयों को भी सूचित कर दिया। अम्माँ की अंतिम इच्छा पूरी करना चाहता था वह, इसलिए भाई के आगे हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। याचक स्वर में बोला, "भैया, मैं जल्दी ही घर खाली कर दूंगा, लेकिन अम्माँ की अंतिम इच्छा इसी घर में अंतिम साँस लेने की है। क्या आप माँ की अंतिम इच्छा पूरी नहीं करोगे?

पसीज गया दिनेश। अम्माँ आखिर उसकी भी तो थी, नौ महीने पेट में रहा था वह माँ के।

भाई मान गया तो संतोष की साँस ली, जयदीप ने।

अम्माँ सन्निपात में बड़बड़ाती, "मेरे पति का घर है यह, मुझे मत निकालो यहाँ से, मैं कहीं नहीं जाऊँगी यहाँ से...मेरे पति की निशानी है ये...।" कँपकँपाती आवाज के साथ रोने का स्वर भी मिल जाता, तो दूसरे ही क्षण हँसने लगती अम्माँ .."चार-चार बेटे हैं मेरे, चार-चार बहू हैं। भागोंवाली हूँ मैं, भागोंवाली, चारों के कंधे पर सवार होकर सीधा स्वर्ग जाऊँगी मैं …सीधा स्वर्ग...।"

उस बेचारी को अब होश नहीं रहा। उसे अब कहाँ मालूम कि जो बेटे उसे जीते-जी स्वर्ग नहीं दे पाए, अब मरने के बाद क्या स्वर्ग देंगे।

कुछ समझ में नहीं आ रहा था जयदीप को। बस, माँ के सिरहाने बैठा माँ के बड़बड़ाने का अर्थ निकालने की कोशिश कर रहा था।

आशा-निराशाओं के बीच झूलते हुए भागोंवाली अम्माँ इस निर्दयी संसार से विदा हो गई, "मुझे कहीं नहीं जाना...''

ये आखिरी शब्द निकले थे अम्माँ के मुँह से और गरदन एक ओर लटक गई। जोर से चीख उठा था छोटा..."माँ...।"

तीनों भाई दौड़कर दरवाजे के पास पहुँच चुके थे।

अम्माँ चली गई, लेकिन आस-पड़ोस और मुहल्ले में रहनेवालों को सबक दे गई थी कि आगे से चार-चार बेटों की माँ को कोई भागोंवाली के नाम से न पुकारे।


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हिंदी समय में रमेश पोखरियाल निशंक की रचनाएँ